लखनऊ को बागों के अलावा झीलों और तालाबों का भी शहर कहा जा सकता है। सैकड़ों छोटी-बड़ी झीलों का रिकॉर्ड राजस्व विभाग, जिला प्रशासन के पास है। इनमें से अधिकतर का जुड़ाव गोमती और इसकी सहायक नदियों के साथ था, जिससे पुरे वर्ष नदी को पानी मिलता था। चूँकि गोमती भूगर्भ जल से पोषित नदी है, इसलिए झीलों, झाबड़ों और तालाबों का बड़ा महत्व है। हालांकि, शहरीकरण में सबसे अधिक संकट इन झीलों पर ही आया। गोमती नदी की जलधारा बनाए रखने में सहयोगी झीलों व तालाबों को योजनाबद्ध विकास भी लील रहा है। लखनऊ के उत्तरी छोर पर महोना समुद्र तल से 415 फीट उपर है तो दक्षिणी-पूर्वी छोर पर नगराम 372 फीट पर है। दक्षिणी हिस्से में बसे आलमबाग समुद्र तल से 394 फीट पर है। उत्तर और दक्षिण के बीच लगभग 43 फीट का ढलान है। दक्षिणी-पूर्वी हिस्सा नीचे होने से जल जमाव भी होता है। कभी महोना, माल और मलिहाबाद में ढाक के घने जंगल होते थे। इन्हीं जंगलों से गुजरती थी गोमती नदी और इससे मिलने वाली तीन नदियाँ – बेहता, झिंगी और अकरद्दी । महोना के घाँस नाव से लादकर गोमती नदी से लखनऊ पहुँचाये जाते थे जिसका चारा बताया जाता था। महोना के 80 प्रतिशत खेतों की सिंचाई तालाबों और झीलों से होती थी। पानी इतना था की 16 से 20 फीट जमीन खोदने पर भूजल निकलने लगता था। मलिहाबाद के अतरिया और मांझी गांव गोमती के खादर में बसे थे और कई बार बाढ के दौरान डूब जाते थे। मलिहाबाद के बीच, दो छोटी धारायें – अकरद्दी और झिंगी गोमती में मिलती हैं ।
कभी घरवार राजपूतों का गाँव होता था माल । ये मंडा- बिजयपुर, बनारस के निकट से आकर बसे थे। पैतावन राय जो उस समय बनारस के राजा के भाई थे तीर्थ यात्रा करने नैमिष, सीतापुर आये और इस गांव में रुके। वापसी में इन्होंने देखा कि जहाँ पर टैंट की बल्लियाँ लगाई गयी थी उसमें हरे पत्ते आने लगे। इसको इन्होने शुभ संकेत समझ कर वहीं बसने का निश्चय किया। इनके नाम पर ही गाँव का नाम पैंतौना हो गया जो गोमती के किनारे बसा था । पहले माल के किले में झोझा (पूर्व में भार) रहते थे जिसे उन्होंने भगाया। घरवार राजपूत धीरे-धीरे अपना वर्चस्व बढ़ाने लगे और गाँव में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उन्होंने गाँव की सीमा को बढ़ाने का प्रयास किया और पास के टप्पा दखलावाल जो बैस सुमदायों का गांव था, उनसे भिड़ गये । लडाई जबरदस्त चली, समझौता हुआ और समुदायों ने अपने-अपने गाँव की सीमा में ही रहने का प्रण किया। यह गाँव अकरद्दी नदी के किनारे बसा था।
यहाँ के पंडित राम नारायण एक अमीर साहुकार थे जिन्होंने रामनारायण बाजार बसाया। यहाँ चैत में अथां मेला, जेठ में महावीर मेला और भादों में जन्माष्टमी का मेला लगता था । गाँव का लगभग तीन चौथाई हिस्सा पंडित राम नारायण के नाम था जबकि घरवार केवल एक चौथाई जमीन के मालिक रह गये । पंडित भक्त नारायण, पंडित राम नारायण के बेटे थे जिनके पास 800 एकड़ से अधिक जमीन थी। गाँव के पूर्वी छोर पर झिङ्गी नदी बहती थी जिससे वहाँ के खेतों की सिंचाई होती थी । गाँव की आबादी 1901 में लगभग 1775 थी।
आइन-ए-अकबरी में भी महोना परगना का उल्लेख मिलता है। यहाँ के रुखारा और अर्जुनपुर गांव कई सदियों की कहानी छुपाये बैठे हैं ।इटौंजा से चार मिल दक्षिण सीतापुर रोड की तरफ है रुखारा । रुखा बाणासुर की बेटी थी जो श्री कृष्ण के पोते अनिरुद्ध को चाहती थी। अनिरुद्ध को रुखा से मुक्त कराने स्वयं अर्जुन आये थे, जहाँ उनकी सेना रुकी वही आज अर्जुनपुर के नाम से जाना जाता है। कुम्भरावाँ गाँव कुभान के द्वारा बसाया गया था जो श्री कृष्ण के दरबार में मंत्री थे। केसरी दैयत ने महोना के करीब केसरमऊ बसाया जो उनके साथी थे। श्री कृष्ण ने अर्जुन के साथ युद्ध में बानासुर को परास्त कर दिया। कुम्भरावाँ गाँव में महादेव की एक प्रतिमा थी जिसे कुरसेन कहते थे। कुभान इनकी पूजा करते थे । बाद में अर्जुन ने अर्जुनपुर बसाया।
मोहनलालगंज में कई झीलें और तालाब पानी से हमेशा लबालब रहते थे। भादो के महीने में यहाँ जल विहार उत्सव मनाया जाता था- तालाबों पर नौका विहार और संगीत का कार्यक्रम होता था। मोहनलाल ने अपने दामाद राजा काशी प्रसाद को यहां का इस्टेट उपहारस्वरूप दिया था। बाद में यहां के राजा काशी प्रसाद ने 1859 में अपने ससुर मोहनलाल के नाम पर मोहनलालगंज बाजार बसाया। बाजार में कई तरह के कर अनाज और कपड़ो का व्यापार होता था। मोहनलालगंज के दक्षिणी पूर्वी छोर पर एक पुराने किले का अवशेष है जो करेला झील के किनारे स्थित है। 1869 में मोहनलालगंज परगना की आबादी 1,13,659 थी जबकि बाजार के आसपास की आबादी लगभग 4000 थी जो 1901 तक इतनी ही रही। राजा काशी प्रसाद ने सिसेंडी में एक बड़ा घर बनाया था और मौहालालगंज को जोडने वाली सड़क का निर्माण कराया था जो जबरैला तक जाता था। जबरैला गांव में सई नदी के उपर पुल का निर्माण भी राजा काशी प्रसाद ने कराया था । सिसेंडी के उत्तरी और पूर्वी छोर पर कई बड़ी झीलें थी जिससे उस गाँव के खेतों की सिंचाई होती थी । करीब 270 एकड़ का एक जंगल भी था इस गाँव में।
मोहनलालगंज के हुलासखेड़ा में उत्खनन स्थल के चारों तरफ स्थित ओक्स-बो झील है जो करेला झील के नाम से जाना जाता है। यह झील कभी एक बहते हुए नदी का हिस्सा रहा था जो लगभग एक दर्जन से अधिक गांवों को हरा भरा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा। गांवों की जीवनदायिनी इस झील को दबंगों ने ही पाटने में कोई कसार नहीं छोड़ा। इस झील पर कई लोगों ने कब्जा कर रखा है। जब झील के जलग्रहण वाले क्षेत्र पर ही कब्जा हो जाएगा तो पानी कहां से आएगा। कभी इस झील में हज़ारों कमल खिलते थे, साईबेरिआ से विदेशी पक्षियाँ डेरा डालते थे। इसी से लगा एक विशाल तालाब था मुडियार जिसपर अब खेती होती है। मोहनलालगंज में हुलासखेड़ा के करेला झील से दक्षिण-पूर्व झीलों की एक लंबी श्रृंखला दिखती थी जो नगराम तक जाती थी। इसके बिल्कुल पश्चिमी छोर पर बख नदी बहती है जो मोहनलालगंज से होते हुए नगराम में प्रवेश करती है। बख नदी से लगभग एक हजार एकड़ जमीन में फैले खेतों की सिंचाई होती थी। जबरौली और सिसैडी में दो बडी झीलें हुआ करती थी जिसके किनारे धान की खेती होती थी ।
मोहनलालगंज तहसील से लगभग 11 किलोमीटर दूर दक्षिणी-पूर्वी ओर समेसी गाँव में दो बड़ी झीलें थी और कई तालाब थे जिसका जलक्षेत्र 1843 एकड़ में फैला था। 1901 में इस गाँव की आबादी 4227 थी । मोहनलालगंज तहसील के उत्तरी पूर्व लोनी नदी निकलती थी जो सलेमपुर के निकट गोमती नदी से मिल जाती थी। करेला झील के अलावा सिसेंडी, जबरौली, शेरपुर-लवल, पुरसैनी, देवती, नगराम, सनेसी और चितौनी में बड़ी झीलें हुआ करती थी। मोहनलालगंज के खेत-खलिहान इन्हीं तालाबों और झीलों से सिंचित थे। झीलों के किनारे मुख्यत: धान की खेती होती थी। इसके आलावा जुवार और बाजरे की भी खेती होती थी। रबी की मुख्य फसले गेहूं, चना, मटर और बारली थीं। मोहनलालगंज परगना का करीब 6000 एकड़ जल क्षेत्र के अंतर्गत आता था। इस क्षेत्र में काफी घने हुआ करते थे जो मस्तेमऊ से शुरु होकर गोमती के किनारे नगराम तक फैली थीं। 1902 में 15 से 20 फीट पर पानी निकल आता था। कार्तिक के महीने में निगोहां के अभीनिवार तालाब पर वार्षिक मेला लगता था । इस तालाब के आसपास पुराने पेड़ों का एक घना जंगल था जहाँ भगवान शिव का एक मंदिर हुआ करता था जो लाल इंटों से बना था ।
सई नदी
लखनऊ में ढलान उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की तरफ है और इसी दिशा में गोमती और इसकी सहायक नदी सई बहती है। उन्नाव के मोहान से होते हुए सई नदी दक्षिण-पश्चिम से लखनऊ में प्रवेश करती है। थोड़ी दूर तक यह मोहान और बिजनौर परगना की सीमा बनाती है। गोमती नदी से इसका तल उथला है जितने गड्ढे गोमती के किनारे मिलते हैं उतने सई के किनारे नही हैं। सई नदी का उदगम लखिमपुर खीरी के पनई झाबर से हुआ है जो लगभग 760 किलोमीटर की यात्रा कर, जौनपुर के पास गोमती नदी से मिलती है। लखनऊ में यह उन्नाव और दक्षिण लखनऊ की सीमा बनाती है। इसका एक किनारा उन्नाव में पड़ता है तो दूसरा किनारा लखनऊ में ।
बेहता नदी
काकोरी के उत्तरी हिस्सा का पानी बहकर बेहता नदी में आता है। कंकराबाद के गाँव में बेहता नदी गोमती से मिल जाती है। बेहता नदी हरदोई के संडीला परगने के पूर्वी केंद्र में स्थित झीलों से निकलती है। कल्याणमल की सीमा के साथ दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती है, और फिर संडीला के पूर्वी हिस्से से होकर दक्षिण की ओर मुड़ती है। बिरेमऊ में लखनऊ के मलिहाबाद परगने में प्रवेश करती है। मलिहाबाद में बेहता नदी के अलावा गोमती के पश्चिम अकरद्दी और झिंगी दो छोटी नदियाँ गोमती में मिलती हैं।
रैठ नदी
महोना के उत्तरी-पूर्वी हिस्से में कई झीलें हैं जो ढाक के जंगलों से घिरे हैं। इसके आस पास कई बड़ी झीले हैं। महोना के उत्तर-पूर्वी छोर पर गुलरिया के पास दलदली जंगल से रैठ नदी निकलती है। इन सभी झीलों का पानी रैठ नदी में आता है जो पूर्व की ओर थोड़ी दूर आगे चलकर बाराबंकी में प्रवेश करती है।
कुकरैल नदी
महोना के अस्ती गांव से ही कुकरैल नदी का उद्गम होता है। यह नदी कुकरैल के जंगल से होते हुये उजरियाँव के नीचे बिबियापुर के पास गोमती से मिलती थी। 1962 में तटबंध के निर्माण से पहले, कुकरैल नदी बैराज के नीचे की ओर (जहां ताज होटल और अंबेडकर पार्क स्थित है) गोमती से मिलती थी। लेकिन तटबंध के निर्माण के बाद नदी का यह हिस्सा नदी की मुख्यधारा से कट गया। कुकरैल नदी और गोमती नदी के बीच एक बडा भू-भाग म्यूनिसपल स्लेज फार्म के नाम से जाना जाता था जो नगर निगम के स्वामित्व में था। सन् 1980 में इसको आवसीय/ शहरीकरण के लिये लखनऊ विकास प्राधिकरण को हस्तातंरित किया गया। वर्तमान में उक्त भूमि का लखनऊ विकास प्राधिकरण एवं डिफेन्स के मध्य स्वामित्व हेतु प्रकरण मा0 न्यायालय में विचाराधीन है। गजेटियर के अनुसार कुकरैल का पानी, अपने शुद्धता के लिए प्रसिद्ध हुआ करता था। कुकरैल नदी के प्रवाह में भूजल का विशेष योगदान रहता था लेकिन वर्तमान में भूजल स्तर में भारी गिरावट के कारण बेसफ्लो में बहुत कमी आयी है जिससे नदी का नैसर्गिक प्रवाह लगभग ख़त्म हो चूका है। कुकरैल नदी के उद्गम के एक हिस्से का उपयोग करके एक अमृत तालाब बनाया गया है, जिसे दसौर बाबा तालाब के नाम से जाना जाता है। यह झील नीचे की ओर अन्य तालाबों से जुड़ी हुई है जो एक छोटा चैनल बनाती है, जो बाद में कुकरैल धारा बन जाती है। लोककथाओं के अनुसार, ग्रामीण दसौर बाबा को अस्ती गांव के ग्राम देवता के रूप में मानते हैं। तालाब के पास एक कुआं है, जिसे कुकरैल नदी का उद्गम स्थल माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक मंगलवार एवं रविवार को कुऐं के जल से नहाने एवं परिक्रमा करने से कुत्ता काटने का विष दूर हो जाता है।
बख नदी
कभी बख नदी का उद्गम लखनऊ रेलवे स्टेशन के पीछे कैंट इलाके से होता था। शुरू में कई झीलों का जल इसमें आता था। इन्ही झीलों पर बाद में आशियाना, बंगला बाजार और एलडीए कॉलोनी बसाया गया। आशियाना के किला मोहम्मदी झील की नौ बीघे जमीन पर लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) ने कॉलोनी बसा दी। एक तरफ इस पर जलवायु विहार बनाया तो दूसरी तरफ सेक्टर एल बस गया। बड़ी झीलों की लम्बी श्रृंखला नदी के उदगम के पास दिखती थी जो आगे चलकर एक बारहमासी धारा में बदल जाती थी। थोड़ी दूर आगे चलकर बिजनौर होते हुए बख मोहनलाल गंज में प्रवेश करती है। यहाँ के दो गांवों से होते हुए निगोहा पहुँचती है। लखनऊ और रायबरेली की सीमा पर बीरसिंहपुर के पास सई नदी में मिल जाती है। यह नदी मोहनलालगंज के पश्चिम और निगोहां के बीच से बहती है। धीरे धीरे बख नदी का वजूद ख़तम होता गया और अब इसे किला मोहम्दी नाला कहा जाता है। रायबरेली रोड से लगे हैबतमऊ झील का पानी बह कर बख नदी में आता था। बीस साल पहले जब वृन्दावन कॉलोनी बसाया गया तो यहाँ का पानी हैबतमऊ झील में आना बंद हो गया। हैबतमऊ झील के आस-पास भी एल्डिको, साउथ सिटी, ओमेक्स सिटी और शहीद विहार कॉलोनी बसायीं गयी। अतिक्रमण से इस झील का एक बड़ा हिस्सा ख़तम हो गया। सड़क और हाईवे बने जरूर, लेकिन पानी बहने का रास्ता ही खतम कर दिया। कॉलोनियां तो बसाई गयीं पर इनके जल निकासी का मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया गया। अगर बख नदी और इनसे लगे झीलों का अस्तित्व बबचा लिया गया होता तो जलभराव और जल की कमी दोनों से निपटा जा सकता था। एल्डिको और ओमेक्स सिटी में आज भी झील का एक बड़ा हिस्सा मौजूद है।
नगवां नदी
सई नदी की दो प्रमुख सहायक नदियाँ बख और नगवां लखनऊ में बहती थी। नगवां मोहान के उत्तर उन्नाव जिले से निकली है जो काकोरी को मोहान-औरास परगना से अलग करती है। थोड़ी दूर तक यह काकोरी और बिजनौर की सीमा बनाती है और बिजनौर के भदोई में प्रवेश करती है। काकोरी के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से का पानी इसी नदी में आता है। थोड़ी दूर चलकर यह बिजनौर में प्रवेश करती है। बिजनौर होते हुए यह आगे बनी के पास सई नदी में मिल जाती है। सरोजनीनगर विधानसभा क्षेत्र में स्थित धार्मिक महत्त्व की गढी-चुनौटी स्थित चांदे बाबा तालाब की विशाल झील जो कि लगभग 200 एकड़ क्षेत्रफल में फैली हुई थी। यह लखनऊ की विशाल झीलों मे एक है तथा उसके पास हीं लगा नगवा नदी एक बड़ा जल स्रोत है । नगवा नदी का पानी बह कर सई नदी में मिल जाता है।
लोनी नदी
लोनी नदी मोहनलालगंज से निकलती है और थोड़ी दूर पूर्व की तरफ बढ़ने के बार सलेमपुर के निकट गोमती के दाहिने किनारे से मिल जाती है।
साहिरी नदी
20वीं सदी के अंत तक उजरियांव गांव लखनऊ से 2 मील पूर्व में स्थित था। यह ऊंची भूमि पर था जहां बाढ़ के दौरान नियमित रूप से गोमती द्वारा जलमग्न होने वाली खादर भूमि दिखाई देती थी, और भारी बारिश के दौरान केवल उत्तर से ही पहुंचा जा सकता था। जिस ऊंचे क्षेत्र पर यह स्थित था वह गोमती नदी द्वारा फैलाई गयी रेतीली मिट्टी का एक विस्तार था, जो खड्डों से टूटा हुआ था, जो गोमती के पूर्व तट का प्रतीक है। एक समय लखनऊ शहर से 2 मील पूर्व में स्थित उजरियांव, गोमती की दो छोटी सहायक नदियां कुकरैल और साहिरी के बीच, गोमती नदी के पूर्वी तट पर बसा था। आज उजरियांव, लखनऊ में राजीव गांधी प्रथम वार्ड में एक मोहल्ला है तथा यह लोहिया पार्क, अंबेडकर पार्क, सेंट जोसेफ अस्पताल, मनोज पांडे चौराहा, मिठाई वाला चौराहा, और बिजली कार्यालय से घिरा हुआ है। उजरियांव गांव की भूमि पर गोमती नगर का विकास किया गया और साहिरी नदी का अस्तित्व ख़तम हो गया। शुरु में इस आवास परियोजना को ‘उजरियांव आवासीय योजना’ का नाम दिया गया; बाद में इसका नाम बदलकर ‘गोमती नगर आवास योजना’ कर दिया गया। लखनऊ के सबसे बड़े कब्रिस्तानों में से एक, ‘गंज शहीदा’ उजरियांव में है, जो लगभग 52 बीघे में फैला है । गंज शहीदा के बीच में एक मस्जिद भी है जिसे मस्जिद गंज शहीदा कहा जाता है। उजरियांव में विभिन्न जमींदार परिवारों से संबंधित लगभग 12 निजी कब्रिस्तान भी हैं। उजरियांव के जमींदार शेख थे जो गांव के संस्थापक के वंशज होने का दावा करते थे, हालांकि उस समय वे बहुत समृद्ध नहीं थे और उन्होंने गांव को बिजनौर के नवाब जाफर अली खान के पास गिरवी रख दिया था।
कहा जाता है कि गोमती नदी के किनारे बसे उजरियांव पहले भार समुदायों का गांव था, जिसे दिल्ली सल्तनत के अधीन अब्दुल्ला और तुर्कमान नामक दो भाइयों के नेतृत्व वाली एक मुस्लिम सेना ने जीत लिया था। इस लड़ाई में भार के राजा और तुर्कमान मारे गए। विजयी अब्दुल्ला ने मारे गए राजा की बेटी से शादी की और गांव में बस गए, जिसका नाम उन्होंने शाहपुर रखा, लेकिन कुछ ही दिनों बाद ईद त्योहार के दौरान प्रार्थना करते समय पूर्व में मारे गए राजा के भाई ने उनकी और उनके अनुयायियों की हत्या कर दी। एकमात्र जीवित उजाली नाम की महिला थी, जो बदोसराय (अब बाराबंकी जिले में) में अपने पिता के घर पर रहती थी। उसका बेटा घियास-उद-दीन तब छोटा बच्चा था; जब वह बड़ा हुआ, तो वह शाही सेना में चला गया और शाहपुर के खिलाफ एक जंग का नेतृत्व किया। इस जंग में वह सफल रहा, राजा मारा गया, और घियास-उद-दीन ने गांव को जमींदोज कर दिया। इसके बाद उसने अपनी मां उजाली के सम्मान में, जो पिछले नरसंहार में बच गई थीं, इसे उजालियावां के नाम से दोबारा स्थापित किया। उजालियावां से यह गांव उजरियांव हो गया। गाँव में एक स्कूल था और 1901 की जनगणना के अनुसार, इसकी जनसंख्या 2933 थी, जिसमें 694 की मुस्लिम आबादी शामिल थी। अधिकांश हिंदू निवासी अहीर समुदाय के थे। गोमती में बंधे बनने के बाद इस गांव के एक बड़े हिस्से पर गोमती नगर बसाया गया।