पुनर्जीवित सभ्यता की सूखती सरिता की कड़ी में आज हम बात करेंगे सैरनी नदी की जो राजस्थान के करौली और धौलपुर जिले में बहती है। यह नदी पहले शुद्ध सदानिरा होकर बहती थी और जब यह नदी सुखी तो यहां की सभ्यता भी बेपानी होकर मरने लगी। सैरनी चंबल, यमुना और गंगा नदी की सहायक नदी है। जब नदी सूखने लगी तो पानी के कमी के कारण खेती करना मुश्किल होने लगा और लोग बेपाणी होकर उजड़ने लगे। लाचार, बेकार और बीमार होकर फरार होने लगे। पर कहते है न मरता क्या न करता अब लोगों ने बंदूके उठा ली और लूटमार करना शुरू कर दिया। यह चंबल का पुराना क्षेत्र है जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से जुड़ा हुआ है। जब जे. पी नारायण जी ने 552 बाघियो को समर्पण कराया तो छोटे बाघियों ने करौली धौलपुर को अपना घर बना लिया। जीवन की सुरक्षा ना बचने के कारण सभ्यता धीरे धीरे उजड़ने लगी। अगर हम विकास की दौड़ पर थोड़ा प्रकाश डाले तो हमे ज्ञान होगा की विकास के साथ हमने प्रकृति में मिलने वाले संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया। अब यदि हम यह दोहन जारी रखते है तो वह दिन दूर नही जब हमे एक वैश्विक जल संकट का सामना करना पड़ेगा। विडंबना है की आज आंखो के साथ साथ सभ्यता की सरिता भी सूखती जा रही है और हम एक आसन्न बड़े खतरे की तरफ अनजान बने हुए है।
भौगोलिक स्थान की अगर बात करते है तो सैरनी चंबल की सहायक नदी है और उसका विस्तार 32 किमी राजस्थान के करौली-धौलपुर क्षेत्र में आता है। सैरणी नदी बांसवारी संरक्षित जंगल से निकल कर बहती और सदानीरा थी और उसका उद्गम मासलपुर तहसील के भूड़खेरा, कोरिपुरा, महाराजपुरा जैसे दर्जनों गांवों की जलधाराओं पे निर्भर था।
जब ये जल धाराएं सुख कर मर गई तो यहां के लोगों ने लाचार होकर बंदूके उठाली और मरना मारना सिख लिया। यहां की महिलाए अपने पतियों से नही मिल सकती थी और पति भी पुलिस के डर से पत्नियों से नही मिल सकते थे। कुछ लोगों को तो दर्जनों साल बीत जाते थे पत्नियों से मिले हुए। शेरनी की सभ्यता सुख कर मर गई थी। 90 के दशक में विकास के नाम पर खनन, जंगल कटाव, बाजारू खेती ने जलधाराओं का विनाश कर दिया। करौली धोलपुर में हो रही जीवन की दशा का पता जब जलपुरुष राजेंद्र जी को चला तो अपने कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर क्षेत्र में वर्षा जल संरक्षण पे काम करने का प्रण लिया। जलपुरुष जी ने अपने कार्यकर्ताओ के साथ मिलकर जलसमुदायो को जल श्रृंखला से जोड़ा और सामाजिक भागीदारी के साथ जल सरंचनाये बनाने का काम शुरू किया गया।
तरुण भारत संघ का चंबल की महेश्वरा और दूसरी नदियों में 1995 में काम शुरू हुआ था। उस काम ने सबसे पहले निर्भय सिंह(जगदीश) की बंदूक छुड़ाई और फिर निर्भय सिंह ने सबको बंदूक छुड़ाने के लिए प्रेरित किया। ये बंदूक छुड़ाने की कहानी पानी है। कांजरी का ताल कोरीपुरा, धानी का ताल महाराजपुरा और कछरे का ताल भुडखेड़ा ऐसी धीरे धीरे हर गांव में जल सरंचनाये बनने लगी। जैसे जैसे तालाब बनने लगे गांव वालो की स्थिति में सुधार होता चला गया। 2014 से सैरनी पुनर्जीवन पर शुरू हुआ काम आज भी निरंतर चल रहा है। इस क्षेत्र में तरुण भारत संघ ने जिन जलसंरचनाओ का निर्माण किया उनमे 1 किलो लीटर पानी संरंक्षण पर कम से कम 2 रुपए 54 पैसे की लागत आई । तरुण भारत संघ द्वारा जल संरक्षण के ये आंकड़े बताते है की इस काम पर खर्च बहुत कम और लाभ अधिक हुआ है। 2014 से लेकर 2023 तक 171 से भी ज्यादा जल सरंचनाये बनाई गई जिसका परिणाम ये हुआ की सुखी हुई सैरनी की जलधारा बहने लगी। अब जो लोग रोजगार के अभाव के चलते बाघी बने वो गांवों में लौटने लगे और खेती करने लग गए जिससे क्षेत्र में शांति आने लगी। तरुण भारत संघ अब छोटी छोटी 23 नदियों पर काम कर रहा है जिससे क्षेत्र में प्रेम, शांति और सद्भावना का वातावरण निर्माण हो रहा है। जो क्षेत्र कभी अपने समस्याओं के लिए जाना जाता जो अपने अशांति के लिए जाने जाता अब जब वहा पानी आया तो दुनिया को एक शांति का संदेश दे रहा है।
सैरनी नदी एक बड़ा उदाहरण है की जहा पानी होता है वहा शांति का अमल होता है। जो बाघी पहले समाज से दूर जंगलों में भटकते थे अब वह गांवों में स्थाई हो गए है और एक इज्जतदार जिंदगी जी रहे है। सैरनी नदी ने न सिर्फ लोगों की सामाजिक आर्थिक स्तिथियों को सुधारा बल्कि लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में एक मौलिक योगदान भी दिया है। तरुण भारत संघ के निरंतर प्रयास से अब सैरनी सदानिरा हो गई है। समय के साथ क्षेत्र में आर्थिक संपन्नता आई है अब लोग शिक्षा और स्वास्थ्य पे भी ध्यान दे रहे है। जिस क्षेत्र में सिंचाई की खेती 20% से भी कम थी अब वह 60% से भी ज्यादा बढ़ गई है। हजारों लोगों की सिंचाई की क्षमता बढ़ी है जिससे खेती में होने वाली पैदावार लगभग दो गुनी हुई है। इस क्षेत्र की जैवविविधता और प्राकृतिक समृद्धि ने हरियाली के साथ खुशहाली बढ़ाई है। अब गर्मियों में भी इस क्षेत्र में सब्जियों की हरियाली दिखती है। अब इस क्षेत्र के उजड़े हुए लोग अपनी बंदूके छोड़कर लाचारी, बेचारी से मुक्त होकर पानीदार, समझदार, इज्जतदार और मालदार बन गए है।
जो गांव कभी उजड़ गए थे या उजड़ने की कगार पे थे अब वह अपनी खुशहाली का किस्सा सुनाते है। महाराजपुरा का कुवरसिंह कहता है की, जल आया तो जीवन में बहार और खुशहाली आई, पहले तो गेहूं का दाना तक नही होता था। एक आध मन बाजरे के दाने हो जाते थे। यहां तील अरहर कुछ भी पैदा नहीं होता था। अब की बार 300 मन गेहूं और सरसो से घर भरा है। जब घर खाली था तो हमारे दिमाग भी खाली थे उसमे प्यार संतोष की जगह नही थी। जब पेट को अन्न पानी मिला तो हमारे दिल दिमाग ने भी विचार करना शुरू किया।
क्षेत्र में हुए बदलाव से अब तो महिलाएं भी सुरक्षित महसूस कर रही है। गढ़मंडोरा की मीरा देवी कहती है की महिलाओं के जीवन पर बहुत बड़ा संकट था, लोग शराबी और आतंकी थे। घर से निकलना दुभर था। पानी भी दूर से लाना पड़ता तो एकेली महिला पानी नहीं ला सकती थी। जंगल में चारो और डकैत रहते थे। महिलाए खेत खलिहान में समूह में जाति इस तरह गांव में भय का माहोल था। आज तो पानी आने के कारण सब खेती और पशुपालन में जुड गए है। अब हम लोग निडर होकर काम करते है और वो भी सुरक्षा के साथ। समय के साथ एक बदलाव ये भी हुआ की जो लोग खनन में मजदूरी करते थे वो लोग अब खेती में मजदूरी करते है जिसमे स्वास्थ का खतरा नहीं है। जब पत्थर का काम करते तो धूल मिट्टी की वजह से सिलिकोसिस से ग्रस्त रहते और अपनी युवा उमर में ही काम करने की क्षमता खो देते। अब जब पर्याई रोजगार उपलब्ध हो रहे है तो लोग अपने परिवार के साथ खुशहाली का जीवन यापन कर रहे है। जैसा काम सैरनी नदी पर हुआ अब जरूरत है की बाकी नदियों पर भी यह काम हो और सभ्यता की सरिता पुनर्जीवित हो। जहा रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं वहा पर्याई रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में भी काम होने की जरूरत है तभी जाकर हमारी सभ्यता आत्मनिर्भर बनेगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल कायम कर पाएगी।
नोट- यह लेख डॉ. राजेंद्र सिंह(जलपुरुष) जी की किताब पुनर्जीवित सभ्यता की सरिता पार्बती-सैरनी से प्रेरित है।
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