हाल ही में तमिलनाडू सरकार ने ऑनलाइन जुआ एवं जुए सरीखे ऑनलाइन खेलों पर रोक लगाने का क़ानून पास किया है. पारित विधेयक के पक्ष में तर्क रखते हुए मुख्य मंत्री ने ऑनलाइन जुए के स्वास्थ्य एवं सामाजिक जीवन यहाँ तक की कानून व्यवस्था पर पड़े दुष्प्रभावों का ज़िक्र किया, इस के चलते होने वाली आत्महत्याओं का ज़िक्र किया. हो सकता है कि कानूनी दाव पेच के चलते यह कानून अदालतों में जा कर अटक जाए परन्तु महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस विधेयक को सभी दलों का समर्थन प्राप्त था. इस से पता चलता है कि ऑनलाइन जुए को रोकने के पीछे समाज के बड़े हिस्से की सहमति है. जुए सरीखे ऑनलाइन खेलों के विज्ञापन में मात्र यह कहने से काम नहीं चल सकता कि इस की आदत लग सकती है एवं वित्तीय जोखिम हो सकता है. विरोध केवल ऑनलाइन जुए का नहीं है अपितु जुए का है. राज्य के अधीन विषय होने के बावज़ूद गोवा जैसे कुछ छोटे राज्यों को छोड़ कर अधिकांश राज्यों में जुआ घर खोलने की अनुमति भी नहीं है. बरसों पहले निजी क्षेत्र द्वारा लाटरी संचालन पर रोक लगा दी गई थी परन्तु राज्य सरकारों द्वारा लाटरी संचालन की अनुमति थी. लाटरी के दुष्परिणामों के चलते, जगह जगह लाटरी बंद कराने के आन्दोलन चले और 9 राज्यों को छोड़ शेष राज्य सरकारों ने इसे भी बंद कर दिया है. पहले जहाँ अखबार में शेयर बाज़ार के भाव की तरह लाटरी के परिणाम नियमित तौर पर छपते थे और बस अड्डे पर लाटरी स्टाल जरूर होते थे, अब हरियाणा सहित अधिकांश राज्यों में ये दिखते भी नहीं.
इस के विपरीत शेयर बाज़ार की खबर तो हर रोज़ और हर अखबार में होती है. शेयर बाज़ार भी तो जुआ है. इसे भी बंद किया जाना चाहिए. नवीनतम सूचना के अनुसार देश भर में सवा ग्यारह करोड़ से अधिक शेयर धारक खाते हैं. जिस काम में इतनी बड़ी तादाद में नागरिक शामिल हों, मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा शामिल हो, उस पर रोक लगाने की मांग अधिकांश पाठकों को घोर अनुचित लगेगी. यह तर्क भी दिया जा सकता है कि पूरी दुनिया में पायी जाने वाली व्यवस्था को बंद करने की बात कैसे की जा सकती है. यह सवाल भी उठेगा कि विशालकाय फैक्ट्रियों के लिए धन निवेश करना किन्हीं एक दो लोगों के बस की बात नहीं है. बड़े पूंजी निवेश के लिए तो पूंजी बड़ी आबादी से ही जुटानी पड़ेगी. इसलिए अधिकांश लोगों को, विशेष तौर पर पढ़े लिखे लोगों को बिना शेयर बाज़ार के आधुनिक अर्थव्यवस्था, विशेष तौर पर बिना शेयर बाज़ार के बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था की कल्पना करना भी मुश्किल लग सकता है. परन्तु अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर शेयर बाज़ार न केवल किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अपितु बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के लिए के लिए न केवल गैर-ज़रूरी अपितु हानिकारक है. निजी संपत्ति आधारित अर्थव्यवस्था में भी पूंजी संग्रहण के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं.
हालाँकि छोटे एवं घरेलू उद्योगों की भूमिका उस से कहीं अधिक हो सकती है, जितनी की आज है परन्तु निश्चित तौर पर आज की अर्थव्यवस्था और जीवन शैली केवल छोटे उद्योगों से नहीं चल सकती. बड़े उद्योगों के लिए तो बड़ी पूंजी चाहिए ही होगी. अगर निजी क्षेत्र को समूल नष्ट नहीं करना तो बिना शेयर बाज़ार के बड़ा पूंजी निवेश कैसे होगा? इस पर चर्चा करने से पहले यह तो स्वीकार कर लें कि शेयर बाज़ार जुआ है, सट्टा है. हालांकि अब ज़मीन की खरीद बिक्री भी निवेश के तौर पर होने लग गई है परन्तु परम्परागत रूप में एक किसान ज़मीन तभी बेचता है जब उसे पैसे की ज़रूरत होती है और दूसरा खेती करने के लिए ही ज़मीन खरीदता है. इस खरीद-फरोख्त में एवं शेयर बाज़ार की खरीद फरोख्त के बीच मूल भूत अंतर है. खेती के विपरीत बहुत कम लोग पैसे की ज़रूरत होने पर शेयर बेचते हैं; अधिकांश शेयर की खरीद फरोख्त अधिक मुनाफे के लिए की जाती है. एक शेयर बेच कर दूसरे शेयर खरीदे जाते हैं. बल्कि एक ही दिन में शेयर खरीदे भी जाते हैं और फिर उसी दिन उसी व्यक्ति द्वारा वही शेयर बेचे भी जाते हैं. ‘वायदा’ कारोबार में तो वह वस्तु भी बेच सकते हैं जो आप के पास है ही नहीं और वह वस्तु खरीद भी सकते हैं जिस की आप को ज़रूरत ही नहीं. इस को जुआ नहीं कहें तो क्या कहें? निश्चित तौर पर कुछ लोग सोच समझ कर, खोजबीन कर के यह करते होंगे, परन्तु अधिकाँश के लिए तो यह भेड़चाल सरीखा जुआ ही होता है.
यह सवाल भी उठ सकता है कि शादी भी एक जुआ ही है. फिर जुआ खेलने को इतना बुरा क्यों मानना. जाहिर है जोखिम तो जीवन में पग पग पर उठाना ही पड़ता है. परन्तु सोच समझ कर जोखिम उठाना, सीमित जोखिम उठाना और बेझिझक नशा कर के गाड़ी चलाना, दोनों एक श्रेणी के जोखिम नहीं माने जा सकते. पूर्ण विचार कर के कोई काम धंधा शुरू करना और फिर भी उस में विफल हो जाना एक बात है और बिना किसी उद्योग की जानकारी के उस में कूद पड़ना दूसरी बात है. अधिकांश नागरिकों का शेयर बाज़ार में निवेश उन की अपनी विशेषज्ञता से बाहर की बात है.
चलो मान लिया कि जुआ खेलना अच्छी बात नहीं है और यह भी मान लिया कि शेयर बाज़ार जुआ है परन्तु बिना शेयर बाज़ार के बड़ी विशालकाय फैक्ट्रियां कैसे खडी होंगी? वैसे तो ऐसे विशालकाय व्यापार की भी ज़रूरत नहीं है कि पूरी दुनिया में अमेज़न ही सामान की बिक्री करे, यूनीलीवर ही पूरी दुनिया में साबुन दंत-मंजन बेचे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर बड़ी पूंजी भी बिना शेयर बाज़ार के इकट्ठे हो सकती है. आज भी होती है. आम नागरिक जो बैंकों में पैसा जमा कराता है, उस का बैंक निवेश ही तो करते हैं. हमारे पैसे का निवेश कर के उस कमाई से बैंक हमें ब्याज देते हैं. कम्पनियां भी निवेश हेतु धनराशि दो स्रोतों से प्राप्त करती हैं. एक हिस्सा तो उन्हें शेयर बाज़ार के माध्यम से सीधे आम नागरिकों से या नागरिकों का ही पैसा म्यूच्यूअल फंड्स के माध्यम से प्राप्त होता है (हालाँकि शेयर बाज़ार में कुछ विशेषज्ञ संस्थान भी निवेश करते हैं). कम्पनियों के पास निवेश हेतु धनराशि जुटाने का एक दूसरा रास्ता भी होता है- बैंकों से ऋण द्वारा. बल्कि कई कम्पनियों के लिए तो निवेश का बड़ा हिस्सा बैंक क़र्ज़ के माध्यम से आता है. अगर शेयर बाज़ार बंद हो जाते हैं तो कम्पनियां सारी की सारी निवेश राशि बैंकों के माध्यम से जुटा सकती हैं. नागरिकों की बचत को निवेश का रूप देने के लिए शेयर बाज़ार ही एक मात्र विकल्प नहीं है.
बैंकों का ऋण भी जनता के पैसे से आता है और शेयर बाज़ार में भी नागरिकों का पैसा आता है, फिर हम बैंकों द्वारा ऋण के माध्यम से कम्पनियों को निवेश के लिए संसाधन जुटाने का समर्थन परन्तु शेयर बाज़ार का विरोध किस आधार पर कर रहे हैं? निवेशक को तो दोनों तरीकों से निवेश मिल जाता है परन्तु जिन का पैसा है उन के नज़रिये से दोनों तरह के निवेश में बड़ा फर्क है. नागरिकों का निवेश शेयर के रूप में हो अथवा डिबेंचर के रूप में, सीधे हो या म्यूच्यूअल फंड्स के माध्यम से, इस का जोखिम नागरिक को उठाना पड़ता है. इस के विपरीत बैंक के माध्यम से नागरिक जो निवेश राशि उपलब्ध कराते हैं, अगर बैंक ही नहीं डूब जाते,तो उन की राशि सुरक्षित रहती है एवं उस पर भले ही थोड़ा हो परन्तु निश्चित ब्याज भी मिलता है. शेयर बाज़ार में निवेश में जोखिम कहीं अधिक रहता है. बैंक जब क़र्ज़ देते हैं तो यह निर्णय विशेषज्ञों द्वारा लिया जाता है जब कि आम नागरिक जब किसी कम्पनी में निवेश करता है तो आम तौर पर वह या तो भेड़ चाल का शिकार होता है या आधी अधूरी जानकारी का. स्पष्ट तौर पर निवेश का निर्णय विशेषज्ञ द्वारा लिया जाना बेहतर विकल्प है.
यह ठीक है कि पैसा तो बैंक का भी डूबता है, नीरव मोदी जैसे तो बैंकों को भी मिली भगत से अथवा अन्यथा चूना लगा देते हैं. ऐसा होता है परन्तु दूसरी तरफ लाखों निवेशक थोड़ी थोड़ी राशि कर के भी करोड़ों रुपया खो बैठते हैं. पिताजी की मृत्यु के बाद जब उन के कागज़ संभाले तो एक मोटी फ़ाइल ऐसे शेयरों की थी जो केवल रद्दी के भाव ही बिक सकते थे. विशेषज्ञों द्वारा क़र्ज़ दिए जाने पर उन की जवाबदेही होती है, उन की निगरानी की जा सकती है. इस व्यवस्था को और कड़ा किया जा सकता है. फिर भी चूक हो सकती है परन्तु इस का मतलब यह तो नहीं कि विशेषज्ञ सर्जन की बजाय कोई भी आपरेशन करने लगे. यह भी आवश्यक है कि बैंक या बीमा कम्पनी जैसे संस्थानों को भी कम्पनियों को क़र्ज़ देना चाहिए न कि उन के शेयर खरीदने चाहियें. निवेश का जोखिम तो वही उठाये जो प्रभावी निर्णय ले रहा है. अगर कम्पनी अम्बानी या किसी और की है, वास्तविक निर्णय वे ले रहे हैं तो फिर निवेश का जोखिम भी उनका होना चाहिए. कम्पनियां यानी शेयर धारक दिवालिया होते देखे हैं परन्तु जिन के फैसलों से कम्पनियां दिवालिया होती हैं, उन को भूखे मरते नहीं देखा.
जुआ किसी भी रूप में हो,ऑनलाइन हो भौतिक रूप में हो या शेयर बाज़ार का, स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. भारतीय संस्कृति में भी युधिष्टर को सत्यवादी होने के बावज़ूद जुआ खेलने की उन की लत के कारण आदर्श नहीं माना गया है. जुआ ही महाभारत में विनाश का कारण बना था. इसलिए शेयर बाज़ार बंद होने चाहियें. और जब तक ये बंद नहीं होते, तो इन के जुए वाले अंशों को नियंत्रित करने के प्रयास हो सकते हैं. उदाहरण के लिए एक समय पर शहरों में सरकार द्वारा विकसित आवासीय कालोनियों में, ‘सैक्टरों’ में -दिल्ली में डीडीए एवं हरियाणा में ‘हुडा’ में – एक से अधिक भूखंड खरीदने पर रोक थी, खरीद के बाद एक निश्चित समय काल तक उस को बेचा नहीं जा सकता था, एवं आज भी निश्चित समय काल में भूखंड पर निर्माण करना आवश्यक है, वैसे ही शेयर बाज़ार को सीमित करने की तरफ तो तुरंत बढ़ा जा सकता है. परन्तु यह होगा तब जब हम यह समझ जाएँ कि शेयर बाज़ार जुआ है एवं इस का होना समाज हित में नहीं है, कि बाज़ार व्यवस्था में भी पूंजी संग्रह के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं.