जब वह नदी थी तो उसके भीतर एक दुनिया थी
नदी का अपना अनोखा संसार
जिसमें सीप – घोघे
काई -सिवार
छोटी – बड़ी मछलियाँ
मछुआरों के जाल
पानी के साँप
किनारे मचलती नहाती भैंसे
और उनका बदन रगड़ते चरवाहे
नदी के दोनों किनारे देखते रहते राह
चरने आने वाले पशुओं के
चरवाहों के अल्हड़ गीत के लिए खुले रहते उनके कान
कभी बंसी बजती , कभी मजीरे
लोग आते – जाते रहते राहगीरों की तरह
पेड़ों की छाँव में ठहर जाते राहगीर धूप में
चिड़ियों की चलती रहती सभाएँ सिर के उपर
झाड़ियों के उपर लिपटी बेलें
बेलों में छिपे हरे मटमैले साँप
केचुओं के बिल
साँप नेवले की लड़ाई
नाविकों की अकुलाहट
नदी के साथ जोड़े रहते
एक साझी दुनिया के कई देखे – अदेखे जीवन द्वीप्
बहती धारा के साथ बहता रहता
नदी का नित नवीनीकृत होता संसार
चलते रहते नदी तट
अपनी रंग बिरंगी जीवशाला के साथ
जीवन भर
नदी अकेले नहीं मरती
सभ्यताएँ मरती हैं
वनस्पतियाँ
और वह अनोखी दुनियाँ
नदी के साथ -साथ
मरती नदियों का शोक गीत गाकर
शोकाकुल होने के बाद
अब समय आ गया
नदियों के नव – निर्माण का
नदी योद्धा तैयार् हो रहे हैं दुनिया भर में
बचाने के लिए अपने देश अपनी सभ्यता
अपना जल और सबका जीवन
यह समय है उनका हौसला बढ़ाने का
नए- नए नदी गीत गाने का
साझी दुनिया बसाने का
जहाँ जीवन और निर्माण के लिए युद्ध का संचालन होता हो
न कि मृत्यु और विध्वंस के लिए
राणा प्रताप सिंह , लखनऊ
विश्व पर्यावरण दिवस -२३ को समर्पित