सार
जलाच्छादित धान के खेतों में ऑक्सीजन प्रवेश कई कारणों से अवरोधित होता है, जो मीथेनोजेन्स (मीथेन उत्सर्जक बैक्टीरिया) की ग्रोथ एवं गुणक वृद्धि के लिए आदर्श स्थिति पैदा करता है। मानवजनित कार्य मीथेन उत्सर्जन के लगभग 8% के लिए जिम्मेदार है। ग्लोबल वार्मिंग की समस्याओं और जलवायु परिवर्तन से संबंधित ग्रीनहाउस गैसों से निपटने के लिए धान की खेती द्वारा उत्सर्जित मीथेन के स्तर को कम करना प्रमुख रणनीतिक प्रबंधन होगा । इसलिये मानवजनित मीथेन उत्सर्जन को एक दशक के भीतर लगभग 45% तक कम किया जाना चाहिए। यह आने वाले दशकों में ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ने से रोकेगा एवं परिणाम स्वरूप वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने में मदद मिलेगी। साथ ही साथ ये विचार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती से संबंधित विभिन्न घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उचित फोरम पर रखा जाएगा। अतः कृषि संबंधी मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए धान की खेती की उचित प्रबंधन करने की आवश्यकता है, जो मीथेन उत्सर्जन की तीव्रता को कम करने के लिए फायदेमंद हो। प्रस्तुत लेख मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए धान से संबंधित कृषि कार्यों के प्रबंधन पर प्रकाश डालता है।
प्रस्तावना
मीथेन वैश्विक ओजोन निर्माण में प्राथमिक योगदानकर्ता एवं शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है। मोटे तौर पर 20 साल की अवधि की बात करे तो यह ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने मे कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 80 गुना अधिक शक्तिशाली है। जबकि 1980 के दशक से मौजूद रिकॉर्ड के अनुसार किसी भी अन्य गैस तुलना में यह तेजी से बढ़ रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका के आंकड़ों के अनुसार 2020 के कोरोना महामारी से संबंधित लॉकडाउन के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन धीमा हो गया, लेकिन वायुमंडलीय मीथेन स्तर बढ़ गया। साधारणतः मीथेन की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में 27 गुना प्रभावकारी है, इसलिए वातावरण में मीथेन की सांद्रता में वृद्धि का वार्मिंग क्षमता पर अधिक स्पष्ट प्रभाव पड़ेगा । वायुमंडल में मीथेन का औसत जीवन लगभग 10 वर्ष है, यह माना जाता है कि मीथेन उत्सर्जन में वृद्धि तेजी से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाएगी, जबकि मीथेन उत्सर्जन को कम करने से वार्मिंग क्षमता में कमी आ सकती है। विभिन्न वैज्ञानिक रेपोर्ट्स के अनुसार मीथेन उत्सर्जन में 45% (2030 तक प्रतिवर्ष 180 मिलियन टन) की कटौती, 2040 तक लगभग 0.3 °C वार्मिंग क्षमता को कम कर सकती है। मीथेन प्रवाह मापन और FAO के आधार पर, समग्र कृषि मीथेन उत्सर्जन 17% है, जिसमें फर्टिलाइजर का योगदान लगभग 7% है। कृषि फसल अवशेषों को जलाने से मीथेन उत्सर्जन में 2% ऊपर जा सकता है | विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार 2010 और 2050 के बीच कृषि मीथेन उत्सर्जन के स्रोत 38% तक बढ़ जाएगा। जबकि FAO की रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक कृषि मीथेन उत्सर्जन लगभग 200 मिलियन टन बढ़ सकता है। धान उत्पादन करने वाले एशियाई देशों में प्रभावी प्रबंधन के अभाव के कारण मीथेन के स्तर का लगातार ऊपर जाना चिंताजनक है (टेबल 1)। कृषि पारिस्थितिक तंत्र से मीथेन उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख पर्यावरणीय चालकों में से एक है। हमारे सामने बड़ी चुनौती है कि हम कृषि-पारिस्थितिक तंत्र से मीथेन उत्सर्जन को कैसे कम या प्रबंधित कर सकते हैं ? संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) तथा जलवायु एवं स्वच्छ वायु प्रबंधन की हाल की गणना में माना गया है कि खेती से संबंधित मीथेन उत्सर्जन को कम करना ग्लोबल वार्मिंग से संबंधित जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के खिलाफ महत्वपूर्ण साधन होगा। लेकिन दुनिया इस समस्या का समाधान कैसे करेगी ? हमें उपाय तलाशने होंगे।
धान के खेतों से वायुमंडलीय मीथेन उत्सर्जन और एरोबिक मेथनोट्रोफ्स की मध्यस्थता वाली ऊपरी सतह पर एरोबिक भागों में मीथेन का ऑक्सीकरण होती हैं। इन दो प्रक्रियाओं (मीथेन उत्पादन और ऑक्सीकरण) की विस्तृत समझ की आवश्यकता है, ताकि धान और अन्य कृषि पारिस्थितिक तंत्रों से मीथेन उत्सर्जन में प्रभावकारी कमी लायी जा सके। प्रस्तुत लेख में मीथेन उत्सर्जन को कम करने के संभावित तरीकों और प्रबंधन विकल्प पर चर्चा की गई है।
क्रम सं. | मीथेन उत्सर्जक राष्ट्र | औसत मीथेन उत्सर्जन (Tg CH4yr-1) |
1 | चीन | 9.57 |
2 | भारत | 7.47 |
3 | वियतनाम | 2.29 |
4 | इंडोनेशिया | 2.11 |
5 | बांग्लादेश | 2.02 |
6 | म्यांमार | 1.62 |
7 | थाईलैंड | 1.55 |
8 | फिलीपींस | 1.21 |
9 | कम्बोडिया | 0.51 |
10 | पाकिस्तान | 0.51 |
टेबल 1: प्रमुख एशियाई देशों का धान के खेतों से औसत मीथेन उत्सर्जन (Tg CH4yr-1)
कृषि –पारिस्थितिक तंत्र से मीथेन उत्सर्जन का संभावित प्रबंधन-
जल, मृदा एवं धान की फसल का विविधीकरणसिंचित विधि से धान का उत्पादन वैश्विक रूप से चावल की खेती का एक बड़ा हिस्सा है। सामान्य तौर पर, खेतों में जितने लंबे समय तक जलाच्छादन मौजूद रहता है, मीथेन उत्सर्जन उतना ही अधिक होता है। यदि कोई भी तकनीक पानी के स्तर को कम करते हुए चावल के उत्पादन को बनाये रखता है तो वो मीथेन उत्सर्जन को भी कम कर सकता है। प्रयोगों द्वारा यह प्रदर्शित किया है कि बढ़ते मौसम के दौरान पानी के स्तर में कमी मीथेन उत्सर्जन को 40% – 50% तक कम करने के लिए प्रभावी हो सकता है । इसके पीछे का कारण यह भी है कि पानी के स्तर को इतना कम हो कि कुछ ऑक्सीजन मिट्टी के शीर्ष कुछ अंदर तक जा सके। यह भी बताया जा सकता है कि पानी की निकासी के कारण ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि, मेथनोजेनिक बैक्टीरिया के स्तर को रोक देता है एवं एरोबिक मेथनोट्रॉफ़्स मीथेन को ऑक्सीकृत करके उसके स्तर को घटा सकते हैं। इसके अलावा जलाच्छादित क्षेत्रों में धान रोपण के बजाय कम पानी वाले क्षेत्रों में धान बोकर भी मीथेन उत्सर्जन को काफी हद तक कम किया जा सकता है। यह अनुमान लगाया गया है कि पानी की निकासी से धान उगाने के दौरान खेतों से मीथेन उत्सर्जन की क्षमता कम हो सकती है जो अन्यथा लगातार जल की मात्रा अधिक होने उत्सर्जित होते रहते हैं (चित्र 2)। शोध परिणामों ने दिखाया है कि जल निकासी से मीथेन उत्सर्जन में प्रतिवर्ष कई मिलियन टन की कमी आएगी, जो वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का लगभग 14% है। विभिन्न देशों में लागू वर्तमान जल निकासी प्रबंधन व्यवस्थाओं में अंतर के कारण, मीथेन उत्सर्जन में कमी और रणनीति में भौगोलिक अंतर हो सकता।
फसल अवशेष प्रबंधन
चावल मुख्य रूप से दुनिया के सभी लोगों के भोजन का जरूरी भाग है, एवं 2050 तक वैश्विक चावल की मांग लगभग 28% तक बढ़ने का अनुमान है। धान की खेती मुख्य खाद्य फसलों के बीच वैश्विक मानवजनित मीथेन उत्सर्जन के लगभग 11% के लिए जिम्मेदार है। फसल अवशेष/ पुआल के समावेश से भूमि में मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है किन्तु इसके अधिक उपयोग से मीथेन उत्सर्जन में वृद्धि होती है। विभिन्न शोधों द्वारा बताया गया है कि मीथेन उत्सर्जन पर दीर्घकालिक (>वर्ष) फसल अवशेष समावेशन का प्रभाव औसतन IPCC अनुमानों की तुलना में लगभग 48% कम थे। वैज्ञानिक चिंतन के अनुसार लंबे समय तक फसल अवशेष समावेशन से मिट्टी में मौजूद मेथेनोट्रोफिक आबादी और धान की जड़ नेटवर्क में वृद्धि हो सकती है, जो राइजोस्फीयर में बेहतर O2 प्रसार के माध्यम से मीथेन की खपत को बढ़ाता है। कृषि कार्यों में फसल अवशेष/ पुआल समावेशन मेथनोजेनिक (मीथेन उत्पादक) बैक्टीरिया के विकास और मीथेन उत्पादन में वृद्धि करता है। जबकि मिट्टी में लंबे समय तक फसल अवशेष/ पुआल समावेशन करने से मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की उपलब्धता के कारण पौधे की वृद्धि और मीथेनोट्रोफ्स की संख्या को बढ़ावा मिल सकता है। अन्य प्रकार के आर्गेनिक संशोधन जैसे बायोफ़र्टिलाइजर, फ्लाई एश, प्रेस मड, पाइराइट, फार्मयार्ड मैन्योर धान के पौधे की वृद्धि और मिट्टी की उर्वरता में काफी वृद्धि करते हैं, जो समय के साथ मीथेन उत्सर्जन की कमी का भी संकेत देते हैं। यह माना जाता है कि उपर्युक्त संशोधनों से मीथेनोट्रोफ्स की वृद्धि के साथ मीथेन ऑक्सीकरण दर में वृद्धि हो सकती है। पुआल का उपयोग मीथेन उत्सर्जन पर प्रत्यक्ष प्रभाव के अलावा धान की खेती के कई अन्य पहलुओं को प्रभावित कर सकता है, जिनमें से कई धान की कृषि-पारिस्थितिक तंत्र के समग्र ग्रीनहाउस गैस बजट को प्रभावित करते हैं। यह माना जाता है कि लंबे समय तक फसल अवशेष प्रबंधन से आमतौर पर धान की पैदावार बढ़ जाती है, जो बेहतर खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण में भी योगदान कर सकता है।
बायोफ़र्टिलाइजर का प्रयोग
शोध परिणामों से ये सर्वविदित है कि जल प्रबंधन और नाइट्रोजन उर्वरक अनुप्रयोग धान के खेतों से मीथेन उत्सर्जन को नियंत्रित करते हैं। तराई भूमि में जलाच्छादन और सिंचित धान कि मृदा मेथनोजेनेसिस के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करते हैं। नीले हरे शैवाल (बीजीए) या सायनोबैक्टीरिया मुक्त रूप से सहजीवी के रूप में प्रकाश संश्लेषक द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं। ऑक्सीजन उत्पादक एजोला एवं सायनोबैक्टीरिया मिट्टी-जल समन्वय बिन्दु पर मीथेन का ऑक्सीकरण को उत्तेजित करके उत्सर्जन कम कर सकते हैं । विभिन्न अनुसंधानों ने प्रदर्शित किया है कि मिट्टी में पाया जाने वाला कवक ट्राइकोडर्मा का उपयोग ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैस मीथेन को कम करने के लिए जैव-उर्वरक के रूप में किया जा सकता है। इसमें विभिन्न फसलों के लिए रोगजनक रोगाणुओं को नियंत्रित करने के लिए जैव कीटनाशक के गुण हैं एवं उत्पादकता में वृद्धि करता है।धान की खेती में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग मीथेन उत्सर्जन का एक बड़ा स्रोत है जिसके परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग होती है। कृषि के लिए लाभकारी सूक्ष्मजीव ट्राइकोडर्मा न केवल रासायनिक उर्वरकों का प्रतिस्थापक है, बल्कि विभिन्न पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले गुणों के कारण यह फसल उत्पादकता बढ़ाने में भी मदद कर सकता है।
शुष्क भूमि में धान का उत्पादन
लिटरेचर के अनुसार धान के पौधे खेतों में मीथेन उत्सर्जन को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा बोए जाने वाले धान के प्रकार भी मीथेन उत्सर्जन को प्रभावित करते हैं, हमें ऐसे चावल की किस्मों पर ध्यान देना होगा जो उत्पादन की क्षमता ना प्रभावित करते हुए मीथेन उत्सर्जन को कम कर सकें। बढ़ती वैश्विक खाद्य मांगों को पूरा करने के लिए धान के वानस्पति मापदंडों को बढ़ाकर उच्च उपज देने वाली चावल की किस्मों की पैदावार करना महत्वपूर्ण रणनीति हो सकता है। धान की खेती का बढ़ता क्षेत्र मीथेन उत्सर्जन को प्रोत्साहित कर सकता है, जिससे वैश्विक जल वायु परिवर्तन बिगड़ने की संभावना है, क्योंकि जलाच्छादित धान की खेती शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन का एक प्रमुख स्रोत है। ऐसा देखा गया है कि कम उपज वाले चावल की खेती की तुलना में उच्च उपज देने वाले धान में जड़ों की सरंध्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि, राइज़ोस्फीयरिक भाग में मीथेन ऑक्सीडाइजिंग बैक्टीरिया की प्रचुरता तथा अधिक बारीक एवं व्यापक जड़ों का नेटवर्क प्रणाली मिट्टी में ऑक्सीजन लेविल बढ़ाकर मीथेन ऑक्सीकरण को ऑक्सीकरण बढ़ा देता है। भले ही धान के खेतों में मीथेन उत्सर्जन के लिए पर्यावरण के विभिन्न कारक जिम्मेदार हैं किन्तु चावल की किस्मों की जीनोटाइपिक विविधताएं मीथेन ऑक्सीकरण में पर्याप्त योगदान कर सकती हैं। मीथेन ऑक्सीडाइजिंग बैक्टीरिया पर हाइब्रिड धान की खेती का अनुकूल प्रभाव पड़ता है , जो मीथेन के ऑक्सीकरण दरों को बढ़ाकर मीथेन उत्सर्जन को कम करने में योगदान देता है अतः ये कहा जा सकता है कि उन्नत चावल की उच्च उपज देने वाली किस्में मीथेन उत्सर्जन को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं।
मृत एवं परती भूमि का पुनर्जीवन
स्थलीय मृदा में मीथेन के लिए एक मात्र ज्ञात संभावित जैविक मीथेन सिंक उपभोग करने वाले मीथेन ऑक्सीडाइजिंग बैक्टीरिया हैं। वनों की अधिकाधिक कटाई एवं भूमि उपयोग परिवर्तन के मिट्टी में मौजूद मेथनोट्रोफ्स कम्यूनिटी और उनके मीथेन खपत गतिविधियों को पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। पर्यावरणीय चालकों के साथ-साथ कृषि उद्देश्यों के लिए प्राकृतिक वन पारिस्थितिकी तंत्र की कटाई मिट्टी में मेथनोट्रोफ्स के सूक्ष्म-पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर सकते है जिसके कारण मिट्टी द्वारा की जाने वाली मीथेन की खपत भी कम हो सकती है। यदि मृत एवं परती भूमि का समय के भीतर रेस्टोरेसन करते हैं तो लुप्तप्राय मेथनोट्रोफ्स की संख्या एवं स्थलीय मृदा द्वारा मीथेन की खपत पर सकारात्मक प्रभाव होता है। इसके अलावा स्थलीय मृदा द्वारा मीथेन खपत बढ़ाने हेतु निम्नीकृत भूमि का वनीकरण एवं मेथनोट्रॉफ़्स की आबादी/ विविधता का पुनर्स्थापन अच्छी रणनीतिक पहल हो सकती है।मृदा संशोधनकृषि-पारिस्थितिक तंत्र में जैविक खाद के स्थान पर अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी की पोषक स्थिति में सुधार के अपेक्षा ग्रीनहाउस गैस मीथेन उत्सर्जन में तेजी आ सकती है। बायोचार आधारित स्लो रिलीज़ उर्वरकों के डालने से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ नाइट्रोजन की कमी को भी पूरा किया जा सकता है। इसलिए रासायनिक उर्वरक, बायोफर्टिलाजर (फार्मयार्ड मैन्योर, बायोचार), स्लो रिलीज़ फर्टिलाजर इत्यादि के मीथेन उत्सर्जन एवं मेथनोट्रॉफ़्स/ मीथेनोजेन्स पर प्रभाव के अध्ययन की आवश्यकता समीचीन जान पड़ती है।
वन और कृषि अवशेषों के जलने का प्रभाव
वायुमंडलीय मीथेन की सांद्रता में कमी या बढ़ोत्तरी जीवाश्म ईंधन के जलने, जंगल की आग या खेती के तौर तरीकों में बदलाव के कारण भी सकता है । जैसा सर्वविदित है कि नेचुरल फारेस्ट की मृदा शोषक के रूप में हमेशा से वैश्विक मीथेन बजट निर्धारण में महत्वपूर्ण हिस्सा रही है एवं ग्रासलैंड, सवाना तथा कृषि पारिस्थितिकी तंत्र की अपेक्षा मीथेन ऑक्सीकरण में अच्छे परिणाम दिये हैं। इसलिए फारेस्ट फ़ायर वैश्विक मीथेन चक्र को प्रभावित करने वाली एक प्रमुख पर्यावरणीय चालक हो सकती है। जंगल और फसल अवशेषों के जलने से मेथनोट्रॉफ़्स की संख्या में परिवर्तन के कारण वायुमंडलीय मीथेन की खपत में कमी हो सकती है। मानव गतिविधियों के कारण बायोमास फ़ायर पर एक नवीनतम आँकड़े के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले तीन वर्षों की तुलना में 2019-20 में फसल अवशेषों के जलने से मीथेन उत्सर्जन में 12.8% की वृद्धि हुई है जो भारत के वर्तमान वैश्विक योगदान (12.2%) को प्रदर्शित करता है। इन सभी कारणों से गैर प्रभावित वनस्थलों की तुलना में प्रभावित क्षेत्रों में मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया की संख्या में उल्लेखनीय कमी देखी है। निष्कर्षों के आधार पर कहा सकता है कि जंगल की आग से बर्बाद हुए पारिस्थितिक तंत्र के पुनर्वनीकरण से मिट्टी में अनुकूल वातावरण निर्माण करके मेथनोट्रोफ्स की आबादी बढ़ाने में सहयोग कर सकते हैं। इसके अलावा पारिस्थितिक तंत्रों का पुनर्भवन मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया के कार्यों में सक्रिय रूप से सहयोग करेगा। फ़ायर इत्यादि मानवकृत संदूषणों द्वारा हो रहे वनों की मिट्टी के क्षरण को नियंत्रित करने के लिए पुनर्वनीकरण बेहतर उपाय हो सकता है। अगले कुछ वर्षों में भारत की बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए कृषि (विशेष रूप से चावल और गेहूं) उत्पादन में निश्चित रूप से लगभग 25% की वृद्धि करनी होगी। भारत में हर साल लगभग 500 मिलियन टन कृषि अवशेष उत्पन्न होते हैं। फसल चक्रों ने जहाँ एक तरफ गंगा के मैदानी इलाक़ों में खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में बेहतर काम किया है, वहीं दूसरी तरफ पर्याप्त मात्रा में फसल अवशेष भी पैदा करता है। किन्तु, बेहतर विकल्प न होने के कारण किसान फसल अवशेषों को खेतों में जलाने को विवश होते हैं। जिसके कारण मृदा में मौजूद पोषक तत्वों, सहयोगी जीवाणुओं में कमी के साथ-साथ वायुमंडलीय गुणवत्ता में क्षरण होता है। मिट्टी में मौजूद मीथेनोट्रॉफ़्स सहित अन्य सूक्ष्मजीव मिट्टी के पोषक पूल के सक्रिय घटक हैं, जो पर्यावरणीय गड़बड़ी के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। फसल अवशेषों के जलने से मिट्टी की ऊपरी सतह के तापमान बढ़ने के कारण मिट्टी में मौजूद प्लांट ग्रोथ प्रोमोटिंग, नाइट्रिफ़ाइंग एवं मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया इत्यादि में तेजी से कमी होती है। इन महत्वपूर्ण जैविक कारकों में क्षरण को रोकने के लिए कृषि कार्यों के जरिये उत्पादित फसल अवशेषों का उपयोग पशुओं के चारे, जैवऊर्जा स्रोत एवं विभिन्न उद्योगों में कच्चे माल के रूप में हो सकता है।
मीथेन खपत करने वाले माइक्रोबियल इनोकक्युलेंट्स
वैज्ञानिक शोधों के अनुसार मीथेनोट्रॉफ़्स को मुख्यतः आर्द्रभूमि, धान के खेत, दीमक एवं मवेशी आहारनाल, पीट-बोग्स जैसे मीथेन समृद्ध स्थानों से रिपोर्ट किया गया है। फ़िलहाल मीथेन के ऑक्सीकरण हेतु कृषि कार्यों में इनोकुलेंट्स के रूप में मेथनोट्रोफ्स की भूमिका अभी प्रारंभिक अवस्था में है। केवल कुछ शोधकर्ताओं ने धान के खेतों में रहने वाले नाइट्रोजन फ़िक्सर्स एवं मीथेन शोषकों के संयोजन से मीथेन उत्सर्जन कैपिंग करने वाले इनोकक्युलेंट्स कंसोर्टियम विकसित करने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं। हाल के रिसर्च के अनुसार, नाइट्रेट- और नाइट्राइट-डेपेंडेंट एनऐरोबिक मीथेन ऑक्सीकरण को एनएरोबिक आर्किया द्वारा संपादित किया जाता है। इसके अलावा एनऐरोबिक मीथेन ऑक्सीकरण, रिवर्स मेथेनोजेनेसिस, एसीटोजेनेसिस और मिथाइलोजेनेसिस करने वाले आर्किया समुद्री तलछट में मीथेन उत्सर्जन को सीमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन अद्वितीय गुणों के आधार पर एनऐरोबिक आर्किया जलाच्छादित धान के खेतों से मीथेन उत्सर्जन को सीमित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अतः धान के खेतों से मीथेन-उत्सर्जन की समस्या को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर और गहन शोध एवं काम करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
वैश्विक खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिए पारंपरिक कृषि पद्धतियों द्वारा की जा रही धान की खेती से मीथेन उत्सर्जन की संभावना बढ़ जाती है। उत्सर्जन कम करने के लिए पारंपरिक धान की खेती के स्थान पर शुष्क भूमि पर पैदा होने (कम पानी वाले) चावल या अन्य फसलों की खेती की तरफ ध्यान देना होगा, अर्थात कम मीथेन उत्सर्जन क्षमता धान की किस्मों की खेती एक सबसे टिकाऊ विकल्प होगा। इसके अलावा सिंचाई तकनीकों में सुधार, जैवउर्वरक का उपयोग में वृद्धि, कम पानी वाले धान किस्मों को विकसित करने के लिए एक दीर्घकालिक प्रयास वैश्विक मीथेन उत्सर्जन में कमी ला सकता है।उपरोक्त लेख में चर्चा किए गए विकल्पों द्वारा कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र (विशेष रूप से धान के खेतों) से मीथेन उत्सर्जन को प्रभावी रूप में सीमित करने की संभावना है। इसके अलावा साइनोबैक्टीरिया और एजोला जैसे जैव उर्वरकों को केमिकल फर्टिलाइजर के स्थान पर प्रयोग मीथेन उत्सर्जन को कम करने में प्रभावी रणनीति हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को मद्देनजर रखते हुए धान की खेती एवं भविष्य की खाद्य मांग की पूर्ति के लिए हमारे दृष्टिकोण पर पुन र्विचार करने का समय आ गया है। ऐसी किफ़ायती धान की किस्मों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो कम पानी वाली में अधिक उत्पादन करते हुए मीथेन उत्सर्जन पर प्रभावी लगाम लगा सकें। इसके अलावा नाइट्रोजन फ़िक्सर्स एवं मीथेन शोषकों के संयोजन से मीथेन कैपिंग करने वाले इनोकक्युलेंट्स उत्सर्जन को कम करने और फसल उत्पादकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ एक पर्यावरण-अनुकूल विकल्प है, जो मिट्टी की उत्पादकता के लिए भी लाभदायक है।