पपीता एक ही वर्ष में तैयार होने वाला उपयोगी तथा पौष्टिक गुणों से भरपूर फल है। इसमें अधिक क्षमता तथा बाजार की अधिक मांग होने के कारण हमारे देष में इसका उत्पादन तेजी से बढ रहा है वैसे तो पपीता गर्म जलवायु की खेती है, परन्तु कृषि क्रियाओं में परिवर्तन कर इसे अन्य क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। भारत में मुख्यतः पपीता महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात तथा पष्चिमी उत्तर प्रदेष में व्यवसायिक रूप से उगाया जाता है।
भूमि तथा जलवायु
सामान्यतः पपीता पानी न रूकने वाली रेतीली दोमट तथा दोमट भूमि में उगाया जाता है। (पी0एच0) मान 7 से 8.5 तक उपयुक्त रहता है। अम्लीय भूमि व करीली भूमि, जिसमें पानी रूकता है। पपीता व्यवसायिक रूप से लगाने की सलाह नही दी जाती है। समुद्र सतह से 4000 फुट की ऊंचाई तक अथवा पहाड़ी घाटियों में इसकी खेती की जा सकती है। तापमान 5 डिग्री सेन्टीगे्रड़ से कम होने की तथा अधिक पाले की स्थिति में इसके फल खराब तथा नर्म होकर गिर सकते है तथा उनका विकास ठीक नही होता। अतः यह स्थान व्यवसायिक खेती के लिए उपयुक्त माने जाते है।
प्रजातियां
पपीता एक अत्यधिक क्रास पोलिनेटेड़ फसल होने के कारण इसमें षुद्ध प्रजातियां अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाती अतः विष्वसनीय केन्द्रों से ही बीज प्राप्त करना चाहिए।
पूसा की किस्मेंः-
1. पूसा ड़ेलिसस
यह फलों की उपज और गुणों के हिसाब से उत्तर भारत की सबसे अच्छी किस्म है। यह गाईनोड़ायोसियस किस्म है। जो षत -प्रतिषत फल देता है। यह एक अच्छा स्वाद, सुगन्ध और गहरे नारंगी रंग का फल देने वाली किस्म है।
2.पूसा मैजेस्टी
इसके फल पकने के बाद अधिक दिनों तक ठहरते हैं। यह भी गाइनोड़ायोसियस और अधिक पपेन देने वाली किस्म है। यह सूत्रकृमि प्रतिरोधी किस्म का पपीता है।
3.पूसा जायन्ट
यह काफी बड़े आकार के फल देने वाली किस्म है। यह तेज हवा और आंधी को अच्छी तरह बर्दाष्त कर लेता है। अतः तेज आंधी वाले क्षेत्रों के लिए यह काफी अच्छी किस्म है।
4.पूसा ड़वार्फ
इस किस्म के पौधे बौने एवं फल का उत्पादन उधिक होता है। फल मध्यम आकार के अंड़ाकार होते है। उत्तर भारत में इसकी व्यवसायिक खेती की अच्छी सम्भावनायें है। पर इसमें आधे नर तथा आधे मादा पौधे आते है।
5. पूसा नन्हा
यह बौनी प्रजाति वाला पौधा है। जो गृह वाटिका और गमलों में लगाने तथा सघन बागवानी के लिए उत्तम होता है।
उत्तरांचल की किस्में
1.फार्म सेलेक्षन
चडढा सीड़ फार्म (नैनीताल, उत्तरांचल) द्वारा विकसित यह प्रजाति 80 से 100 किलो प्रति पौधे तक सर्वाधिक उपज देने की क्षमता देने वाली तथा बौनी जाति की है। इस प्रजाति के फल थोड़े लम्बे 2-4 किग्रा के होते है तथा फलत एक समान होती है। एक फूलड़ण्ड़ी पर एक ही फल आता है। जिसके कारण फलों की छंटाई की आवष्यकता नही होती।
कोयम्बटूर की किस्में:
ता0 कृ0 वि0 वि0 कोयम्बटूर से निकली निम्नलिखित किस्में है।
1. सी0 ओ0 1
यह छोटे आकार का पौधा है। जिसमें पहला फल जमीन से करीब 6 सेमी0 की ऊंचाई पर लगता है।
2. सी0 ओ0 2
यह माध्यम आकार की लम्बी और अधिक पपेन देने वाली किस्म है।
3. सी0 ओ0 3
यह गाइनोड़ायोसियस प्रजाति का लम्बा विषाल पेड़ है। फल मध्यम आकार के बहुत मीठे और लाल रंग के होते है।
4. सी0 ओ0 4
यह गाइनोड़ायोसियस किस्म का लम्बा पेड़, फल का गूदा भी चित्तीदार बैंगनी और मोटा होता है। यह अपने फलों और सुन्दरता के कारण गृहवाटिका में लगाने के लिए उत्तम है।
बंगलौर की किस्में:
1. कुर्ग हनी
यह भारतीय बागवानी अनुसंधान केन्द्र, चेथाली स्टेषन से हनीड़यू किस्म से चयन द्वारा निकली गई है। यह गाईनोड़ायोसियस प्रजाति का पौधा है।
बीज की मात्रा एवं उपचार
सामान्यतः एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम बीज की आवष्यकता होती है (200 ग्राम प्रति एकड़) बीज बोने से पहले एक लीटर पानी में 03 ग्राम बावस्टिन अथवा एमासान (पारायुक्त फफूंदीनाषक) का घोल बनाकर उससें 05 मिनट तक बीज को उपचारित करें।
बीज बुवाई का समय
भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों में पपीते का बीज बोने का समय अलग-अलग होता है। सामान्यतः व्यवसायिक दृष्टि से उत्तरी भारत में जुलाई, मध्य भारत में अगस्त तथा गुजरात और महाराष्ट्र में फरवरी तक पपीते के बीज की बुआई करनी चाहिए। भावरी क्षेत्र में 10 जुलाई से 10 अगस्त का समय सर्वोत्तम है। बीज का जमाव भूमि का तापमान 30-35 डिग्री सेन्टीग्रेड़ तक होने पर ही होता है। अतः पोली हाऊस में जमाव अच्छा रहता है।
बीज बुवाई का तरीका
05 ’ 01 मीटर लम्बी चैड़ी तथा 06 इंच उठी क्यारियां बनाकर उसमें 15 किलो सड़ी गोबर की खाद 500 ग्राम एन0 पी0 के0 15ः15ः15 तथा 100 ग्राम फालीड़ाल या 40 ग्राम फ्युराड़ान (दानेदार) बुआई से 20 दिन पहले ड़ालकर मिला लें, बोने से पहले क्यारी को भुरभुरी बना लें। अब 2’11’2 इंच की दूरी पर बीज बोंयें। आधी सूखी हुई पत्तियों का चूरा और आधी मिट्टी मिलाकर एवं छानकर बीज के ऊपर की नाली को भर दें। बुआई करने के बाद क्यारी अखबार के कागज से अथवा सूखे फूस इत्यादि से ढक दें, और नियमित रूप से समय-समय पर फव्वारे से हल्का पानी देते रहें ताकि ऊपरी सतह पर हमेषा नमी बनी रहे। 15 से 20 दिन बाद जब बीज अंकुरित होने लगे तब फूस इत्यादि हटा दे और हजारे से पानी देते रहे। जब पौधों में 5-7 बाद दो-दो पत्ते आने लगें, उस समय नर्सरी के पौधों को पोलीथीन के थैलियों से प्रतिरोपित करना चाहिए।
नर्सरी में पौधों का उपचार
उमस तथा हवा में अधिक नमी होने के कारण पौध गलन का रोग आ सकता है। तेज बारिष के पष्चात् हवाबन्द होने पर गर्मी के कारण तना गलन तीव्रता से होता है। अतः पौधों के ऊपर 50 प्रतिषत एग्रो षेड़नेट अथवा बांस फूस का छप्पर रखना चाहिए। 0.1 प्रतिषत कापर आक्सीक्लोराइड़ अथवा कार्बनड़ाजिम का स्प्रे नर्सरी में दो बार उक्त परिस्थितियों में कर लेना चाहिए।
थैली भराव
4’6 की पोलीथीन की थैलियों में तली की तरफ चार छेद कर लें इन थैलियों में एक हिस्सा बलोई मिट्टी, एक हिस्सा गोबर की खाद तथा एक हिस्सा सुखे पत्तो का चूरा मिलाकर छानकर भरें। षाम का समय नर्सरी में पानी डालकर पौधों को सावधानी से उखाड़ कर इन थैलियों में प्रतिरोपित करें। नर्सरी थैलियां 3 से 5 दिन तक छाया में रखें तत्पष्चात् इन्हे खुली धूप में ही रखना चाहिए अन्यथा नर्सरी में पौधे पतले होने लगेंगे। ध्यान रहे कि रोज षाम को नियमित हजारे से पानी देते रहें। यदि थैली में पौधे प्रतिरोपित न करना चाॅहे तो खुले में गोबर खाद मिली हुई क्यारियों में 15’15 सेमी की दूरी पर प्रतिरोपित किया जाना चाहिए और हल्का पानी देते रहना चाहिए। 25 से 30 दिन में जब पौधे 3 से 5 इंच के हो जाएं तो इन्हे खेत में रोपित कर दिया जाना चाहिए।
खेत की तैयारी
खेत की तैयारी में सामान्यतः दो विधि अपनाई जाती है। प्रथम विधि में लाइन से लाइन 10 फीट की दूरी रखते हुए एक-एक मीटर दूरी पर सवा फिट लम्बे, सवा फिट गहरे गड़ढे बना लेते है। गड़ढे के मिश्रण के रूप में 8 से 10 किलो सड़ी गोबर की खाद 800 ग्राम नीम खली, 100 ग्राम एन0पी0के0 12ः32ः16 तथा 25 ग्राम फ्यूड़ारान गड़ढे से से निकाली गई मिटटी में अच्छी तरह मिलाकर भर देते है तथा पानी दे देते हैं। 4 से 5 दिन पष्चात् इस गड़ढे में पंक्ति का ध्यान रखते हुए पौधा रोपण कर देना चाहिए। खेत में लगाने से पहले थैली को सावधानी से फाड़ या उतार लेना चाहिए।
द्वितीय विधि:
व्यवसायिक रूप से बड़े खेतों में पपीता लगाने हेतु नाली विधि अपनायी जाती है। इसमें 10 फीट की दूरी पर समानान्तर नालियां खुदाई कर लेते हैं। नाली की गहराई सवा फीट तथा चैड़ाई भी सवा फीट रखी जाती है। नाली खुदाई का काम फावड़े से अथवा ट्रेक्टर के पीछे प्लाव या नाली खोदने वाला यंत्र लगाकर कर सकते हैं। इस नाली में आधा टन गोबर का खाद 10 किलो नीम खली तथा 5 किलो एन0पी0के0 के एवं आधा किलो फ्यूराड़ान मिलाकर सम्पूर्ण मिश्रण को नाली में पुनः भर देते हैे, और पानी लगा देते हैं। इस नाली में 4-5 दिन पष्चात् 3-3 फीट की दूरी पर सीधी लाइन में पौध रोपण कर देना चाहिए।
सिंचाईष्
पौध रोपण के पष्चात् 5 दिन तक केवल लोटे से पानी देना चाहिए तत्पष्चात बाद में हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। पौधों से 6 इंच की दूरी पर पानी की नाली बनाकर केवल नाली में पानी चला देने से पौधे को नमी प्राप्त हो जाती है जो अधिक उपयुक्त है। जाड़ों में 15 से 20 दिन के अन्तर पर तथा गर्मियों में 8 से 10 दिन के अन्तर पर सिंचाई करते है।
पानी को सीधा तने के सम्पर्क में न आने दें (चारों ओर मिट्टी चढ़ाकर रखें) और उचित जल निकास का प्रबन्ध अवष्य करें। सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई करें इससें मिट्टी कड़ी नही हो पाती और खेत में हवा का संचार भी अच्छा बना रहता है।
पौध रोपण का समय
15 अगस्त से 15 अक्टूबर तक उत्तर भारत में तथा दिसम्बर-जनवरी तक दक्षिण भारत में पपीता लगाने का उचित समय है। उत्तरी भारत के लिए सितम्बर माह सर्वोत्तम है।
पाले से बचाव
पपीते के छोटे पौधों को पाले से बचाने के लिए पेड़ के चारों ओर दो-दो फीट की 3 लकडिया (कुरी, अरहर, बांस की पतली ड़ण्ड़ियां) गाड़ कर पराल के मुठ्ठे से ऊपर बांधते हुए रख देना चाहिए। ध्यान रहे कि चारों ओर बहुत अधिक पराल न लगायें अन्यथा धूप न मिलने की अवस्था में भी पौधा मर सकता है।
पौधों की देखरेख एवं नर पौधों की छंटाई
सर्दियों में दो तीन बार तथा गर्मियों में तीन चार बार पानी देना पर्याप्त होता है। समय-समय पर गुड़ाई करते रहें। अप्रैल-मई में पौधों में फूल आने लगते है।
मादा पेड़ों के फूल मोटे तथा तने के साथ चिपके होते है परन्तु नर पेड़ों के फूल छोटे और पतली लम्बी ड़ंड़ियों के साथ लटके हुए होते है। 5 प्रतिषत नर पेड़ों को छोड़ते हुए जो कि परागण के लिए आवष्यक होते हैं, षेष नर पेड़ों को खेत से निकाल देना चाहिए। कुछ पौधे उभयलिंगी होते हैं अर्थात 1-2 इंच लम्बी ड़ंड़ी बनाते हुए फल बनाने लगते हैं। इन पौधों में लम्बे आकार के उत्तम फल आते हैं। अतः इन्हे उखाड़ना नही चाहिए।
मिटटी चढ़ाना
बरसात से पहले पेड़ के चारों ओर 6 से 8 इंच ऊंची मिट्टी तने के चारों ओर खेत के बीच से लेकर चढ़ा देनी चाहिए। इससे बरसात में पानी सीधा तने के संपर्क में नहीं रहेगा जिससे तना गलन रोग से बचा जा सकता है। मिट्टी चढ़ाने के कारण तेज हवा में भी पौधे नही गिरते हैं।
फलो की तुड़ाई एवं पैकिंग
पौध रोमण के 1 वर्ष पष्चात् फल पकने लगते हैं। नीचे से पकने प्रारम्भ होते हैं। जब फल रंग बदलने लगे और हल्की पीली धारी दिखाई दे अथवा नाखुन लगाने पर गाढ़े दूध के स्थान पर पानी जैसा द्रव्य निकलने लगे तो यह फल तुड़ाई लायक माना जाता है फल को तोड़कर रददी कागज में लपेटकर टोकरों में पैक कर बाजार भेजना चाहिए। इससे फल भी खराब नही होते तथा फल के चारों ओर रंग भी अच्छा आता है।
पैदावार तथा लाभ
पपीते की पैदावार सामान्यतः 30 से 40 टन प्रति हैक्टेअर होती है परन्तु अच्छी खेती करने पर 60 टन प्रति हैक्टेअर तक ली जा सकती है। इस प्रकार यदि बाजार भाव 2 रूपया प्रति किलो भी मिले तो 80000/- रूपये प्रति हैक्टेअर की बिक्री तथा 60000/- प्रति हैक्टेअर का षुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
पपीते के साथ मिश्रित खेती
पपीत केे साथ छोटी अवस्था में विभिन्न फसलें जैसे मटर, फ्रेंचबीन ग्लोड़लाई, प्याज, मसूर, लहसून इत्यादि लगा सकते हैं तथा इन फसलों के पष्चात ऐसी फसलें लगाई जा सकती है जो कि पपीते की हल्की छाया में भी अच्छी हो जाती है। जैसे अदरक, हल्दी, मिर्च(पन्त सी वन), जिमी कन्द, अरबी इत्यादि ध्यान देना चाहिए कि अन्तः फसलों हेतु अतिरिक्त खाद अवष्य दें।
रोग एव कीट तथा उनका नियंत्रण:
1. विषाणु
विषाणुओं मे मोजैक, लीफकर्ल और ड़िस्टोर्सन रिंग स्पाट पपीते के पौधे को अधिक हानि पहुंचाते हैं। बीमार पौधों की पत्तियां पीली-हरी, चितकबरी और भूरी हो जाती हैं। कुछ पौधों में मौजेक बहुत तीव्रता से दिखाई देता है और पत्तियां सूई के आकार की हो जाती है। ऐसे पौधों को खेत से उखाड़ कर मिटटी में गाड़ देना चाहिए ताकि छोटे कीट इत्यादि मौजेक को पूरे बाग में न फैला पाए। इन छोटे कीटों (एफिड, जैसिड) को मारने के लिए एन्ड़ोसल्फान, मोनोक्रोटोफास का स्प्रे करना चाहिए। द्वितीय वर्ष में मौजेक पौधों में स्वतः कम हो जाता है।
2. जड़ और तना सड़न रोग
इसके आक्रमण से पौधे के जड़ एवं तने का सड़ना षुरू हो जाता है और अन्ततः पूरा पौधा सड़कर गिर जाता है। पपीते के बाग में जल निकास का विषेष ध्यान देना चाहिए। तने पर जैसे ही इस बीमारी के लक्षण दिखाई पड़े, उस स्थान से सडे़ भाग को खुरचकर साफ कर लेना चाहिए। जहां सड़न की बीमारी अधिक लगती है। वहां पर 5 ग्राम काॅपर आक्सीक्लोराइड़ 1 लीटर पानी में घोल कर तने के चारों तरफ मिलाकर ड़ालें ताकि दवा तने के साथ-साथ जड़ों में भी पहुंचे। इससे यह उपचार बरसात में 2 से 3 बार करने से गलन के रोग से बचा जा सकता है।
3. ऐन्थेक्नोज
प्रभावित फल पर पीले रंग का धब्बा पड़ जाता है, जो धीरे-धीरे मुलायम होता जाता है और अन्त में भूरे रंग का हो जाता है। तने और षाखाओं में भी, जो भाग अधिक धूप में पड़ते हैं, यह बीमारी लग जाती है। मैंकोजेब या जिनेब का पानी में 0.25 प्रतिषत घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव करने से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।
4. कली और पुष्पवृत्त का सड़ना
पौधों में यह बीमारी लगने से फूल और फल गिरने लगते हैं। 0.2 से 0.25 मैंकोजेब और जिनेब का छिड़काव षुरू में करना बीमारी को रोकने में सहायता करता है।
5. कीड़े
पपीते को कीड़ों से बहुत कम नुकसान पहुंचता है। फिर भी इनमें कुछ कीड़े लगते हैं। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है:-
अ. रेड़ स्पाइड़र माइट
यह पपीते की पत्ती और फल पर आक्रमण करता हैं। जिसके कारण नई पत्तियां चिथड़ी नजर आती हैं। इसे घुलनषील गंधक 0.2 प्रतिषत के छिड़काव से रोका जा सकता हैं।
ब. निमैटोड़
रेनीफार्म निमैटोड़ अधिक हानि पहंुचाता है। जिसके कारण पौधा छोटा हो जाता है और उसमें फल कम लगते है। इथिलीन ड़ाईब्रोमाइड़ 3 ग्राम/हेक्टेयर देने से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।
पपेन निकलना
कच्चे फलों के दूधिया तरल पदार्थ में पपेन होता है। जिसका उपयोग दवाइयों और व्यापार में किया जाता है। पपीते से पपेन निकलना बहुत आसान है। फल लगने के करीब 2.5 से 3 महीने बाद जब ये मध्यम आकार के हो जाते हैं। पपेन निकाला जाता है। जो बरसात से षुरू होकर मार्च तक चलता है। ठण्ड़े एवं नम वातावरण में पपेन अधिक मात्रा में निकलता है। फलों में सुबह से दोपहर तक सबसे अधिक मात्रा में निकलता है। किसी भी तेज ब्लेड़, चाकू या षीषे के टुकड़े से फल की सतह पर उसके डं़ठल से लेकर किनारे तक चार गहरे लम्बे निषान बनाते हैं। इसकी गहराई 0.3 सेमी0 से ज्यादा नही होनी चाहिए। इसके लिए ब्लेड़ जो 0.3 सेमी0 ही दस्ते से बाहर हो, सर्वोत्तम हैं। पौधे के नीचे चारों ओर क्षेत्रनुमा पोलीथीन बिछा देते हैं। इसी में दूध टपक-टपक कर गिरने लगता हैं। आधे घण्टे में पूरा दूध निकल जाता हैं। इसे स्टील के चम्मच से स्टील के बर्तन में इकट्ठा कर लेते हैं। अधिकतम पपेन के लिए यह प्रक्रिया प्रत्येक सात-आठ दिनों के अन्तराल पर तीन-चार बार करनी चाहिए। पपेन निकालते समय हाथ में दस्ताना जरूर पहन लेने चाहिए ताकि हाथों को नुकसान न पहुंचे। प्रषिक्षित आदमी एक दिन में करीब 2 किलो पपेन निकाल लेता है।
पपेन को रखने के लिए एल्यूमिनियम का गिलाव व बड़े आकार का टब सर्वोत्तम होता है। कटे स्थान पर जम गये तरल पदार्थ को भी खुरच कर रख लेना चाहिए। इसे तुरन्त ही धूप में या बिजली के चूल्हे पर 40 ड़िग्री सेन्टीग्रेड़ तापक्रम पर सुखाया जाना चाहिए। इसे कृत्रिम रूप से घर में बनें ईट की भट्ठी में भी सुखाया जा सकता है। यह भट्ठी करीब 1 मीटर चैड़ी, 1 मीटर ऊंची और 2 मीटर लम्बी होती है, जो तली की तरफ से बन्द और एक तरफ से खुली होती है। ऊपरी सतह भी खुली रहती है। ऊपरी सतह से करीब 30 सेमी0 नीचे एक लोहे की चादर रख देते हैं। इसके ऊपर 2.5 से 5 सेमी0 मोटी बालू की तह बिछा देते है। ताकि ताप सभी दिषाओं में बराबर फैल सके। पपेन को सबसे पहले बोरे के ऊपर फैलाकर तब उसे भट्ठी पर रख देते है। धुआं लगने से पपेन खराब हो जाता है। अतः जलावन के रूप में नारियल के छिलके या कोयले को ही इस्तेमाल करते हैं और ताप को 40 ड़िग्री सेन्टीग्रेड़ के नीचे ही नियंत्रित करके रखते है।
सूखने पर यह परतदार या रवादर हो जाता है। जिसे पीसकर पावड़र बना लेते है। सूखने के पहले 0.05 प्रतिषत पोटेषियम मेटाबाई-सल्फाइट परिरक्षक के रूप में ड़ालते हैं। अन्त में इस पावड़र पपेन को वायुरूद्ध बोतल या पोलीथीन बैग में पैक कर लेते हैं। भारत में पपेन की बिक्री हेतु फार्मास्युटिकल एण्ड़ कास्मेटिक प्रमोषन कौंसिल, मुम्बई और एन्जोकेम प्रयोगषाला प्राइवेट लिमिटेड़, येवला, जिला नासिक से संपर्क किया जा सकता हैं। पपेन आयात करने वाले देषों में संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड़, स्विट्जरलैण्ड़ और जापान आदि प्रमुख हैं। भारत में पपेन निर्यात की अच्छी सम्भावनायें हैं। अतः पपेन उद्योग को विकसित करने के लिए चुने हुए क्षेत्रों में पपीते के बाग लगााकर पपेन, पैंक्टिन और संरक्षित पदार्थ तैयार करने वाली फैक्ट्री लगाकर तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेष करके इसकी सम्भावनाओं को और आगे तेजी से बढ़ाया जा सकता हैं।
पपेन सामान्यतः मध्य भारत गुजरात कर्नाटक, महाराष्ट्र इत्यादि ऐसे प्रदेषों में अधिक मात्रा में निकाला जाता हैं। जहां जाड़ो का तापमान 15 ड़िग्री सेन्टीग्रेड़ से कम नही होता है। उत्तरी भारत में पपेन निकालना अधिक लाभप्रद नहीं होता क्योंकि एक तो पपेन कम निकलता है, दूसरा फलों पर निषान लग जाने के कारण इसका बाजार मूल्य कम हो जाता हैं।
पपेन की पैदावार:
पपेन का उत्पादन जलवायु, किस्म तथा कृषि कार्य के अनुसार घटता-बढ़ता हैं। एक फल में 3 से 10 ग्राम तक सूखा पपेन प्राप्त होता है। प्रति पौधा पपेन की पैदावार 200-450 ग्राम तक पाई गई है। इस प्रकार एक पेड़ जिसमें 40-50 फल लगा हो तथा एक हेक्टेअर में पेड़ो की संख्या 2500 हो। 5 कुन्तल पपेन का उत्पादन होता है। पपेन की कीमत 200 रूपये प्रति किलोग्राम से लेकर 300 रूपये प्रति किलोग्राम तक है। इस प्रकार पपेन से 35000/- रूपये प्रति हेक्टेअर की आमदनी हो सकती है। देष के कई राज्यों खासकर महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेष में पपीते की खेती मुख्यतः पपेन पैदा करने के लिए ही की जाती है।
बीज उत्पादन:
पपीते की व्यवसायिक खेती में षुद्ध बीज की अनुपलब्धता प्रमुख बाधा है। बीजों की अनुवांषिक षुद्धता को बनाये रखना बहुत जरूरी है। षुद्ध बीज या तो नियंत्रित अवस्था में या दो किस्मों के बीच एक खास दूरी (2कि0मी0) रखने पर प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा नही करने पर बीजों की अनुवांषिक षुद्धता नष्ट हो जाती है।
नियंत्रित परागण की अवस्था में एक ही पृथक लिंगी किस्म के नर और मादा के बीच सहोदर संगम (सिंपिग) परागण किया जाता है। गाईनोड़ायोसियस किस्म में मादा पौधों को उभयलिंगी पौधों के पराग से परागण करते हैं या उभयलिंगी पौधों में स्वयं परागण करते है। परागण के बाद उसमें पहचान के लिए निषान लगा देते है। फलों के पकने पर बीजों को अलग-अलग निकाल लिया जाता है। बीजों को छाया में ही सुखाया जाता है तथा 8 से 10 प्रतिषत की नमी पर पोलीथीन में पैक कर छाया में स्टोर करना चाहिए।
मासिक कृषि कार्यक्रम
पपीते की खेती एक बार बाग लगा देने पर प्रायः 2 फसल ली जाती है तथा कुल आयु पौने तीन साल की होती हैं। अक्टूबर में पौधे लगा देने पर कृषि कार्यक्रम निम्नलिखित होगा:
पपीते के बाग में वर्षभर किये जाने वाले कार्यक्रमों का मासिक कैलेन्ड़र
प्रथम (रोपण) वर्ष
महीना एवं पखवाड़ा | कार्य |
सितम्बर-अक्टूबर | खेत में पौधा लगाना तथा हल्की सिंचाई करना |
नवम्बर | सूखे पौधों की जगह नया पौधा लगाना तथा आवष्यकतानुसार पानी देना। पेड़ के चारों तरफ निराई करना। |
दिसम्बर | पेड़ के चारों तरफ निराई करना तथा बीच के जगहों में फावड़ें द्वारा गुड़ाई करना। |
जनवरी | आवष्यमतानुसार पेड़ के चारों तरफ निराई करना। |
फरवरी | बीच की जगहों मे फावड़े द्वारा गुड़ाई करना। |
मार्च | खेत में नाली बनाकर पेड़ों में पानी देना। |
अप्रैल | आवष्यकतानुसार पानी देना। |
मई | लिंग भेद स्पष्ट होने पर नर पौधों को निकालना तथा आवष्यकतानुसार सिंचाई करना। |
जून | अतिरिक्त नर पौधों को निकालना तथा पूरे खेत की फावड़े द्वारा गुड़ाई करना। |
जुलाई | पेड़ के चारों तरफ 30 सेमी0 की गोलाई में मिट्टी चढ़ाना तथा प्रत्येक गड्ढ़े पर केवल एक पौधा रहने देना। रासायनिक खाद की प्रथम मात्रा नर पौधों को छोड़कर सभी मादा पौधों मे देना। पूरे बाग में निराई करना। |
अगस्त | जल निकास की पूरी सावधानी बरतना, पूरे बाग में अगर घास हो तो निराई करना। |
सितम्बर | रासायनिक खाद की आधी बची मात्रा प्रत्येक पेड़ से 30 सेमी0 की दूरी पर गोलाई में देना। |
द्वितीय वर्ष
महीना एवं पखवाड़ा | कार्य |
अक्टूबर | जमीन सूखने पर भरपूर सिंचाई करना, पीले फल तोड़ना। |
नवम्बर | पीले फल पकने के पूर्व तोड़ना, आवष्यकतानुसार सिंचाई करना। |
दिसम्बर | पीले फल तोड़ना, आवष्यकतानुसार सिंचाई करना। |
जनवरी | पीले फल तोड़ना, आवष्यकतानुसार सिंचाई करना। |
फरवरी | धूप से बचाने के लिए पेड़ में लगे फल को बोरे से ढ़कना, पीले फलों को तोड़ना तथा आवष्यकतानुसार सिंचाई करना। |
मार्च | फल अधिक मात्रा में पकने लगा हो तो षीघ्र से षीघ्र फल तोड़ना, आवष्यकतानुसार सिंचाई एवं निराई करना। |
अप्रैल | फल अधिक मात्रा में पकने लगा हो तो षीघ्र से षीघ्र फल तोड़ना एवं बाग में आखिरी ं सिंचाई करना। |
मई | सम्पूर्ण रूप से फल तोड़ना क्योंकि सभी फल पक कर समाप्त हो जाएंगें। |
जून | जून पूरे बाग की सम्पूर्ण सफाई करना तथा बीच में फावड़े द्वारा गुड़ाई करना, पुराने फल समाप्त हो गये होंगे तथा नया फूल षुरू हो गया होगा। यदि वर्षा न हो तो सिंचाई करना। |
जुलाई | रासायनिक खाद पुनः देना। |
अगस्त | बाग में घास उगने पर निराई करना, झुके पेड़ को सीधा करना। |
सितम्बर | रासायनिक खाद की आधी बची मात्रा पुनः देना। फल पकने षुरू हो गयें हों तो उन्हें षीघ्र तोड़ना। |
विषेष सावधानियां:-
1. पानी रूकने वाली एवं चिकनी मिट्टी में पपीता न लगाएं।
2. दीवार के साथ पपीता न लगाए कम से कम 5 फीट की दूरी रखें।
3. अधिक पाला पड़ने की स्थिति में खेत में सिंचाई कर दे एवं भीगी पराल सुलगाकर खेत के चारों ओर धुंआ करें।
4. गोबर खाद की मात्रा कम न करें।
5. उत्तरांचल के भावरी इलाकों में 15 जुलाई से 10 अगस्त तक बीज बुआई कर दे तथा सितम्बर माह में खेत में पौधे लगा दें।