सारांष
हरित क्रान्ति के समय देष की बढ़ती हुई जनसंख्या को प्रर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न प्रकार के रसायनिक उर्वरकों एवं रसायनिक कीटनाषकों का प्रयोग फसल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए करना पड़ा। कुछ वर्षों के बाद ही यह ज्ञात हो गया कि रसायनिक कीटनाषक न केवल पारिस्थितिकी तंत्र अपितु पशु एवम् मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। तदुपरान्त वैज्ञानिक समुदाय ने रसायनिक कीटनाषकों के नकारात्मक प्रभाव को कम करने के लिए इसके विकल्प का अध्ययन करना षुरू किया और विभिन्न जैव कीटनाषकों को विकसित करने में सफलता पाई, जो न केवल प्रयार्वरण हितैषी हैं, बल्कि इनका कोई भी नकारात्मक प्रभाव मानव स्वास्थ पर नहीं पड़ता है। यह जैव कीटनाषक जानवरों, पौधों, सूक्ष्मजीवियों और कुछ खनिज सामाग्रियों के फार्मूलेषन से तैयार किया जाता है। सर्वाधिक रूप से प्रयोग होने वाले जैव कीटनाषक सूक्ष्मजीव एवम् पौधों के उत्पाद होते हैं, जो हानिकारक कीटों को रोकने में सक्षम होते हैं। जैव कीटनाषकों में जैव कवकनाषी (ट्राइकोडर्मा), जैव खरपतवार नाषी (फाइटोप्थोरा), जैव पीड़कनाषी (बैसिलस थुरिंजिएन्सिस), आदि षामिल हैं, इनको फार्मूलेषन के अनुसार तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें सूक्ष्मजीवी कीटनाषक, जैव रासायनिक कीटनाषक एवम् पादप समाविष्ट संरक्षक षामिल हैं। सूक्ष्मजीव जैव कीटनाषकों में तीन चैथाई से अधिक केवल बैसिलस थुरिंजिएन्सिस का प्रयोग किया जाता है, जबकि अन्य जैव कीटनाषकों में नीम के पेड़ के व्युत्पन्न, वैकुलोवायरस, ट्राईकोडर्मा, ट्राईकोग्रामा, इत्यादि प्रमुख हैं। जैव कीटनाषकों की पर्यावरण संरक्षण में उपयोगिता के कारण विष्व स्तर पर इनकेे उपयोग में लगभग 10 प्रतिषत की वार्षिक दर से वृद्धि हो रही है। लेकिन भारत में इनको अपनाने में कुछ बधाऐं और चुनौतियां आ रही हैं। इनको अपनाने में आने वाली प्रमुख बधाओं में किसान में जागरूकता की कमी, पंजीकरण में कठिनाई, इनके लिए बनी कठोर नीतियां, उपभोक्ताओं की नकारात्मक धारणाएं एवम् अर्थ व्यवस्था की समस्यों प्रमुख रूप से षामिल हैं। भारत में जैव कीटनाषकों को अपनाने में कुछ चुनौतियां भी जैसे- जैव नियन्त्रक एजेन्ट के चयन में कठिनाई, अच्छी तकनीकी का अभाव, अनुभवी लोगों की जरूरत, प्रयोगविधि की जानकारी का अभाव, कीटों में जैव कीटनाषकों के प्रतिरोध का विकास, प्रदर्षन और स्वजीवन, आदि से सम्बन्घित हैं । अतः इस लेख में जैव कीटनाषकों के पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धित लाभ, प्रकार, वर्तमान में विश्व स्तर एवम् भारतवर्ष में इनके उपयोग की स्थिति के साथ-साथ कुछ कमियां जैसे कीट विषिष्टता, तापमान के प्रति अस्थिरता, आदि वर्णित हैं।
परिचय
भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देष है, और विष्व का लगभग 2.4 प्रतिवर्ष भू-भाग भारत में आता है। जबकि जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विष्व में दूसरा स्थान है, यहां विष्व की लगभग 18 प्रतिषत जनसंख्या निवास करती है। इतनी अधिक जनसंख्या के लिए प्राकृतिक विधि से खेती करके प्रर्याप्त अनाज उपलब्ध कराना असम्भव है, इसलिए देष की बढ़ती हुई जनसंख्या को प्रर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न प्रकार के रसायनिक उर्वरक एवं रसायनिक कीटनाषकों का प्रयोग करना पड़ा, जिसका प्रभाव फसलों के पैदावार पर धनात्मक परन्तु अन्य जीवों और मनुष्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। रसायनिक कीटनाषकों के कारण मृदा की उर्वरता और जैव विविधता घटी जबकि जल प्रदूषण तथा पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव बढा है। इसलिए पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित और कुशल कृषि प्रौद्योगिकियों की तत्काल आवश्यकता है।
जैव कीटनाशकों की अवधारणा आज महत्वपूर्ण रूप से लक्षित प्रजातियों के लिए एक उच्च चयनात्मकता लेकिन गैर-लक्षित जीवों के लिए न्यूनतम प्रभाव, कम पर्यावरणीय दृढ़ता, उच्च प्रभावशीलता, प्रतिरोधों के विकास को रोकने, खाद्य श्रृंखला के भीतर जैवसंकेंद्रण और जैव आवर्धन से बचने के लिए जीवित जीव और जैविक पदार्थ फसल सुरक्षा एजेंटों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आम बोल चाल की भाषा में ऐसे वर्ग के कीटनाशक जिसे प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करके उत्पादित किया जाता है उसे जैव कीटनाशक कहते है। जबकि यूएसईपीए के अनुसार जैव कीटनाशकों को जानवरों, पौधों, बैक्टीरिया और कुछ खनिजों जैसे प्राकृतिक सामग्रियों से प्राप्त फॉर्मूलेशन के रूप में परिभाषित किया गया है। एक लक्षित कीट के लिए विशिष्ट रोगजनक सूक्ष्मजीवों पर आधारित जैव कीटनाशक कीट समस्याओं के लिए पारिस्थितिक रूप से प्रभावी समाधान प्रदान करते हैं। सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले जैवकीटनाशक जीवित जीव हैं, जो लक्षित कीट के लिए रोगजनक हैं। इनमें बायोफंगिसाइड्स (ट्राइकोडर्मा), बायोहर्बिसाइड्स (फाइटोप्थोरा) और बायोइंसेक्टिसाइड्स (बैसिलस थुरिंजिएन्सिस) शामिल हैं। जैव कीटनाशक कृषि और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए एक संभावित पर्यावरण हितैषी विकल्प है, जिसमें सूक्ष्म जीवों और अन्य प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त माइक्रोबियल कीटनाशकों, जैव रसायनों की एक विस्तृत श्रृंखला और प्रक्रियाओं में आनुवांशिक समावेश शामिल है। जैव कीटनाषकों को उनके उत्पादन के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है, जो नीचे लिखे पैराग्राफ में वर्णित हैं।
जैव कीटनाशकों की मुख्य श्रेणियाँ
चूंकि जैव कीटनाषक अलग-अलग प्रकार के जैव स्रोतों से बनाये जाते हैं और उनकी क्रियाविधि व क्षमता अलग-अलग होती है। अतः जैव कीटनाशकों को उनकी क्रियाविधि के अनुसार तीन वर्गों में विभक्त किया गया है, जो निम्नवत हैः
क. माइक्रोबियल कीटनाशक
ख. जैव रासायनिक कीटनाशक
ग. पादप समाविष्ट संरक्षक (पी.आई.पी.) कीटनाशक
क. सूक्ष्मजीवी कीटनाशक
सूक्ष्मजीवी कीटनाशकों में सक्रिय संघटक के रूप में सूक्ष्मजीव जैसे जीवाणु, कवक, विषाणु, प्रोटोजोआ या शैवाल होते हैं। हालांकि प्रत्येक संघटक की सक्रियता लक्षित कीट के लिए विशिष्ट होती है। सूक्ष्मजीवी कीटनाशक कई अलग-अलग प्रकार के कीटों को नियंत्रित कर सकते हैं। यह कीटों में बीमारी उत्पन्न करते, कीटों से प्रतियोगिता करते या अन्य क्रियाओं के माध्यम से सूक्ष्मजीवों की स्थायित्व को रोक कर कीट का अवरोधन करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ ऐसे कवक चिन्हित किये गये हैं, जिनमें से कुछ खरपतवारों को नियंत्रित करते और अन्य कवक जो विशिष्ट कीड़ों को मारते हैं। सबसे व्यापक रूप से ज्ञात माइक्रोबियल कीटनाशक जीवाणु बैसिलस थुरिंजिनेसिस या बीटी की किस्में हैं। यह एक प्रोटीन पैदा करता है जो विशिष्ट कीटों के लिए हानिकारक है। यह गोभी, आलू और अन्य फसलों में कुछ कीड़ों को नियंत्रित करता है। बी. थुरिंजिनेसिस से बने उत्पादों में विभिन्न प्रकार के विषाक्त पदार्थों होते हैं जो कीड़ों की एक या अधिक प्रजातियों को मारने की क्षमता रखते हैं।
ख. जैव रासायनिक कीटनाशक
जैव रसायनिक कीटनाशक प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पदार्थ हैं जो गैर विषैले तंत्र द्वारा कीटों को नियंत्रित करते हैं। जैव रसायनिक कीटनाशकों में ऐसे पदार्थ शामिल होते हैं जो कीटों की वृद्धि या प्रजनन में बाधा डालते है। जैसे पौधे के विकास नियामक या ऐसे पदार्थ जो कीटों को दूर भगाते या आकर्षित करते (फेरोमोन) हैं। प्राकृतिक यौगिक जो गैर विषैले तरीके से रोगजनकों को नियंत्रित करते अथवा सुगंधित पौधों के अर्क जो कीटों को जाल की ओर आकर्षित करते हैं।
ग. पादप समाविष्ट संरक्षक (पीआईपी)
पादप समाविष्ट संरक्षक, वह कीटनाशक पदार्थ है जो पौधे में जैव प्रौघोगिकी विधि से विषिष्ट आनुवांशिक पदार्थ के प्रवेष कराने पर पौधों में ही उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिए वैज्ञानिक, बीटी कीटनाशक प्रोटीन के लिए उत्तरदायी जीन को लेकर कपास के आनुवंशिक पदार्थ में प्रवेष कराते हैं और तब कपास के पौधे में स्वयं कीट को नष्ट करने की क्षमता विकसित हो जाती है। पिछले दो दषकों से विभिन्न प्रयोगषालाओं के वैज्ञानिक विभिन्न फसलों की ट्रांसजेनिक किस्मों को तैयार कर रहे हैं। इन किस्मों में बीटी जीन समावेषित होते हैं, जो बैसिलस थुरिंजिनेसिस जीवाणु से प्राप्त प्रोटीन (जिसे क्रिस्टल प्रोटीन δ-एंडोटॉक्सिनया क्राई प्रोटीन कहा जाता है) से बने होते हैं। जब कीट इन पौधे के तनों, पत्तियों, फलों आदि को खाते हैं तो कीटनाशक प्रोटीन कीटों को स्थिर कर देते या मार देते हैं। पादप समाविष्ट संरक्षक के प्रमुख उदाहरण बीटी कपास और बीटी मक्का र्है।
जैव-कीटनाशकों के प्रमुख उत्पादः
भारत में उपयोग किए जाने वाले जैव कीटनाशकों के प्रमुख उत्पाद निम्नलिखित हैंः
अ. नीम के पेड़ के व्युत्पन्न
नीम के पेड़ के व्युत्पन्नों में कई रसायन होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के कीटों की प्रजनन क्षमता और पाचन क्रिया को प्रभावित करता है। नीम के व्युत्पन्न उत्पाद निम्नलिखित हैंः
ब. नीम की पत्तियां
नीम की पत्तियों में कीटनाषक क्षमता होती है, क्योंकि इनमें विषेष प्रकार के रसायनिक तत्व पाये जाते हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में लिमोनोइडस कहते हैं। इसका प्रयोग कवक जनित रोगों, सुंडी, माहू, इत्यादि के नियंत्रित करने के लिये किया जाता है। 10 लीटर घोल बनाने के लिए 1 किलो पत्तियों को रात भर पानी में भिगोकर अगले दिन सुबह इसको अच्छी तरह कूट या पीस कर पानी में मिलाकर पतले कपड़े से छान कर कीटनाषक के रूप में प्रयोग कर सकते है।
नीम की गिरी
नीम के बीजों में लिपिड, प्रोटीन और टेरपेनोइड्स के विभिन्न घटक पाये जाते हैं। नीम की गिरी में अजादिराच्टिन नाम का प्रमुख जैव रसायन पाया जाता है। नीम की गिरी को कीटनाषक के रूप में उपयोग करने के लिए 20 लीटर पानी में एक किलो नीम के बीजों के छिलके उतारकर अच्छी प्रकार से कूटकर भिगो दे और इसे एक पतले कपड़े में बांधकर पानी में रात भर के लिए डाले दें। अगले दिन इस पोटली को मसल-मसलकर निचोडंे व पानी को छान लें और इस पानी में 20 ग्राम देसी साबुन या 50 ग्राम रीठे का घोल मिला दें। इस घोल को कीट व फुफंद नाशक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
नीम का तेल
नीम के तेल में विभिन्न जैव रसयान जैसे निंबोलिनिन, निंबिन, निंबिडिन, निंबिडोल, सोडियम निंबिनेट, गेडुनिन, सालैनिन और क्योरसेटिन पाये जाते हैं। यह रसयान जैव कीटनाषक के रूप में कार्य करते हैं। एक लीटर नीम के तेल का कीटनाषक बनाने के लिए, एक लीटर पानी 15 से 30 मि०ली० नीम का तेल अच्छी तरह मिलाये और इसमें 1 ग्राम देसी साबुन या रीठे का घोल मिलाएं। एक एकड़ की फसल के लिए 1 से 3 ली० तेल की आवश्यकता होती है। नीम के तेल का छिड़काव करने से गन्ने की फसल में तना बंधक व सीरस बंधक बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त नीम का तेल कवक जनित रोगों में भी प्रभावी है। इस घोल का प्रयोग इसे बनाने के तुरंत बाद करें अन्यथा तेल पानी से अलग होकर सतह पर फैलने लगता है जिससे नीम के तेल से बना कीटनाषक प्रभावी नहीं रहता।
नीम की खली का घोल
नीम के बीज से तेल निकालने के बाद बची हुई खली भी कीटनाषक के रूप में प्रयोग की जाती है। क्योंकि इस खली में भी विभिन्न जैव रसायन पाये जाते हैं जो कीटनाषक के रूप में कार्य करते हैं। 50 लीटर नीम की खली का घोल बनाने के लिए 1 किलोग्राम नीम की खली को 50 लीटर पानी में एक पतले कपड़े में पोटली बनाकर रातभर के लिए भिगो दें। अगले दिन इसे मसलकर छान लें। एक एकड़ की खड़ी फसल में 50 लीटर नीम की खली का घोल का छिड़काव करें। यह बहुत ही प्रभावकारी कीट व रोग नियंत्रक है।
1. बैसिलस थुरिंजिनेसिस (बीटी)
चूंकि बैसिलस थुरिंजिएन्सिस (बीटी) में एक विषिष्ट प्रकार की प्रोटीन, जिसे क्रिस्टल प्रोटीन δ-एंडोटॉक्सिनया क्राई प्रोटीन कहा जाता है, पाई जाती है में कीटों को मारने की क्षमता होती है। अतः इस प्रोटीन का प्रयोग विभिन्न कीटनाशक के रूप में कृषि में कीटों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। बैसिलस थुरिंजिनेसिस विश्व स्तर पर सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला जैव कीटनाशक है। यह मुख्य रूप से कपास में अमेरिकी सुंडी और चावल में तना छेदक जैसे लेपिडोप्टेरस कीटों का एक रोगज़नक़ है। जब इसे कीट लार्वा द्वारा अंतग्र्रहण किया जाता, तो यह विषाक्त पदार्थों को छोड़ता है जो कीट के मध्य आंत को नुकसान पहुंचाता है और अंततः कीट को मार देता हैं।
2. बैकुलोवायरस
यह लक्षित विशिष्ट वायरस हैं जो कई महत्वपूर्ण पौधों के कीटों को संक्रमित और नष्ट कर सकते हैं। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले बैकुलोवायरस का उपयोग कीटों की एक विस्तृत श्रृंखला को नियंत्रित करने के लिए किया जा सकता है। अधिकांश बैकुलोवायरस का उपयोग जैव कीटनाशकों के रूप में किया जाता है अर्थात, उन्हें सिंथेटिक रसायनिक कीटनाशकों के उपयोग के समान उच्च घनत्व वाले कीट आबादी पर छिड़का जाता है। बैकुलोवायरस कीट आबादी के आकार को विनियमित करने में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिका निभाते हैं। कई वर्षों से बैकुलोवायरस को वानिकी और कृषि के खिलाफ लक्षित जैव नियंत्रण एजेंटों के रूप में लागू किया गया है। पारिस्थितिक तंत्र में बैकुलोवायरस अक्सर विभिन्न प्रकार के कीड़ों के दमन में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, जिप्सी मोथ का वायरस, लिमैंट्रिया डिस्पर, को कीट की घनी आबादी का प्रमुख प्राकृतिक नियामक माना जाता है।
3. ट्राइकोडर्मा
ट्राइकोडर्मा एक कवकनाशी है जो मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों जैसे जड़ की सड़न के खिलाफ प्रभावी है। यह शुष्क भूमि फसलों जैसे मूंगफली, काला चना, मूँग और चना के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है, जो इन रोगों के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं।
4.ट्राइकोग्रामा
ट्राइकोग्रामा कई वर्षों से लेपिडोप्टेरान कीटों के नियंत्रण के लिए उपयोग किया जा रहा है। ट्राइकोग्रामा को परजीवी दुनिया का ड्रोसोफिला माना जा सकता है, क्योंकि उनका उपयोग पानी के बहाव के लिए किया गया है। ट्राइकोग्रामा विशेष रूप से अंडोपरजीवी होते हैं। वे विभिन्न लेपिडोप्टेरान कीटों के अंडों में अंडे देते हैं। अंडे सेने के बाद, ट्राइकोग्रामा लार्वा मेजबान अंडे को खिलाते और नष्ट कर देते हैं।
जैव कीटनाशकों की वर्तमान स्थिति
बढत़ी हुई लागत और रसायनिक कीटनाशकों के नकारात्मक प्रभाव ने जैव कीटनाशकों के विचार को फसल संरक्षण और उत्पादन के लिये आवश्यक विकल्प बना दिया। इसलिए ऐसे जैव सक्रिय पदार्थों की आवश्यकता है जो प्रभावी रूप से कीटों से लड़ते हैं तथा मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव डालते हैं। जैव कीटनाशकों का प्रयोग सब्जियों सहित प्रमुख फसलों के लिए समावेषी रोगकारक प्रबन्धन (आईपीएम) रणनीति का एक महत्वपूर्ण घटक है। सबसे प्रसिद्ध उदाहरण नीम आधारित उत्पाद हैं जो कई कीटों के खिलाफ प्रभावी साबित हुए हैं। कई जैव-कीटनाशक जो व्यावसायिक रूप से किसानों के लिए उपलब्ध हैं।
वर्तमान में विश्व स्तर पर लगभग 175 पंजीकृत जैव-कीटनाशक और 700 उत्पाद सक्रिय हैं। भारत में अभी तक केवल 12 जैव-कीटनाशकों का पंजीकरण किया गया है, जिनमें से 5 जीवाणु (चार बेसिलस प्रजातियां और एक स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस), तीन कवक (दो ट्राइकोडर्मा प्रजातियां और एक बीवेरिया प्रजाति), दो वायरस (हेलीकोवरपा और स्पोडोप्टेरा) और दो पादप उत्पाद (नीम और सिंबोपोगन) हैं। विभिन्न जैव-उत्पाद के बीच, बैसिलस थुरिंजिनेसिस (बीटी), ट्राइकोडर्मा विरिडे, मेटारिज़ियम, ब्यूवेरिया बेसियाना, न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस (एनपीवी) और नीम का पौधों के संरक्षण के लिये लोकप्रिय रूप से उपयोग किया जाता है। कई जैव-कीटनाशकों का क्षेत्र मूल्यांकन या तो अकेले या अन्य पौध संरक्षण विकल्पों के साथ संयोजन में उनके प्रभाव और अनुकूलता को दर्शाता है। कई अध्ययनों ने उनकी आर्थिक व्यवहार्यता, पर्यावरण अनुकूलता और कृषि में स्थिरता की सुविधा के लिए संकेत दिय हैं। नीम आधारित छोटे पैमाने पर फॉर्मूलेशन का उत्पादन और फार्मूलेटर कीटनाशकों के रूप में विपणन किया जा रहा है। उनमें से ज्यादातर हैं नीम के तेल से बने अलग-अलग मात्रा में होते हैं।
वर्तमान में, बायोपेस्टीसाइड्स उपयोग किए जाने वाले पादप रक्षकों का केवल 2 प्रतिशत कवर करते हैं हालाँकि विश्व स्तर पर अतीत दो दशक में इसकी विकास दर बढती प्रवृत्ति को दर्शाती है । जैव कीटनाशकों के वैश्विक उत्पादन का अनुमान 3,000 टन से अधिक होना लगाया गया है, जो प्रति वर्ष तेजी से बढ रहा है। विश्व स्तर पर, जैव कीटनाशकों का उपयोग में हर साल 10 प्रतिशत की दर से लगातार वृद्धि हो रही है।
जैव कीटनाशकों का कीटों पर प्रभाव
लगभग 90 प्रतिशत माइक्रोबियल बायोपेस्टीसाइड्स केवल एक एंटोमोपैथोजेनिक जीवाणु, बैसिलस थुरिंजिनिसिस से प्राप्त होते हैं। जैव कीटनाशक हानिकारक कीटों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से मार देते हैं। जैव कीटनाशकों का प्रत्यक्ष ओर अप्रत्यक्ष प्रभाव को निम्नलिखित चित्र में दिखाया गया है-
भारत में जैव-कीटनाशकों को अपनाने में आने वाली प्रमुख बाधाएं
भारत में अधिकतर किसान आज भी रसायनिक कीटनाषकों का प्रयोग करते हैं, क्योंकि इन कीटनाषकों के विकल्प के रूप में बाजार में उपलब्ध विभिन्न जैव कीटनाशकों की उपयोगिता के बारे में जानकारी की कमी है, जो नीति नेटवर्क की कमजोरी को दर्शाता है। रासायनिक कीटनाशकों के सापेक्ष जैव कीटनाशकों के लिए अपरिपक्वता नीति नेटवर्क, सीमित संसाधन और क्षमताएं, विश्वास की कमी, नियामकों और उत्पादकों के बीच कुछ गंभीर समस्याएं हैं। जैव कीटनाशकों की क्रिया के तरीके की बेहतर समझ, उनके प्रभाव और नियामक मुद्दे जो उनको अपनाने में उत्पन्न होने वाली महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं। चूंकि पर्यावरण सुरक्षा एक वैश्विक चिंता का विषय है इसलिए हमें किसानों, निर्माताओं और सरकारी एजेंसियों के बीच जागरूकता लाने की जरूरत है। नीति निर्माताओं और आम लोगों को जैव कीटनाशकों को अपनाने के लिए कीट प्रबंधन की आवश्यकताएँ हैं। जैव कीटनाशकों के उपयोग को कम करने वाली कुछ प्रमुख बाधाओे की चर्चा नीचे की गई हैः
1. जागरूकता की कमी
भारत में जैव कीटनाशकों में रुचि रसायनिक कीटनाशकों से जुड़े नुकसान पर आधारित है, किसानों द्वारा इसे अपनाने के लिए अधिकतम लाभ के बारे में जानकारी की आवश्यकता है। व्यवहार में जैव कीटनाशकों को अपनाने में छोटे और बड़े किसानों के बीच एक स्पष्ट अंतर है। जैव कीटनाषकों का प्रयोग करने के लिए ज्यादातर समय छोटे किसान या तो अनजान हैं, या इनके प्रति रुचि नहीं दिखाते हैं।
2. जैव-कीटनाशकों के पंजीयन में कठिनाई
कीटनाशक अधिनियम (1968), 2000 में संशोधित, भारत सरकार के तहत एकमात्र कानून है जो जैव कीटनाशकों सहित सभी प्रकार के कीटनाशकों के आयात, निर्माण, बिक्री, परिवहन, वितरण और उपयोग को नियंत्रित करता है। जैव कीटनाशकों के मामले में, शेल्फ-लाइफ, क्रॉस-संदूषण, नमी की मात्रा और पैकेजिंग में प्रयोग होने वाले पदार्थ पर विचार किया जाता है। जीवाणु और कवक जैव कीटनाशकों के मामले में, जैव-प्रभावकारिता डेटा को भारतीय कृषि अनुसंधन परिषद (आईसीएआर), राज्य कृषि विष्वविद्यालय (एसएयू), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) या भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) संस्थानों से उत्पन्न करने की आवश्यकता होती है।
3. जैव कीटनाशकों के लिए कठोर नीतियां
भारत में पहली बार 28 जुलाई 2000 को राष्ट्रीय कृषि नीति (2000) की घोषणा की गई थी। इस नीति में किसानों को प्रमाणित बीज, उर्वरक, पौध संरक्षण रसायन और जैव कीटनाशकों की पर्याप्त और समय पर आपूर्ति पर जोर दिया गया था। नीति में जैविक खेती के लिए प्रमाणित इनपुट के रूप में जैव उर्वरक, जैविक खाद, और जैव कीटनाशकों जैसे पोषक तत्वों के जैविक स्रोत शामिल थे। कीट नियंत्रण और रोग पूर्वानुमान के लिए बाँझ कीट तकनीकों, ट्रांसजेनिक कीड़ों, उपन्यास वनस्पति विज्ञान, अर्ध रसायन और एंडोफाइटिक माइक्रोबियल मेटाबोलाइट्स के अनुप्रयोगों को शामिल करके नए जैव कीटनाशकों और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने पर मुख्य ध्यान केंद्रित किया गया था।
4. जैव कीटनाशकों के बारे में उपयोगकर्ता/उपभोक्ता की नकारात्मक धारणाएं
जैव कीटनाशकों के कम उपयोग के लिए उपयोगकर्ता/उपभोक्ता की जागरूकता एक प्रमुख कारक है। कई किसान जैव कीटनाशक शब्द से परिचित भी नहीं हैं। कुछ जगहों पर ऐसी घटनाएं होती हैं, जहां कुछ लोगों ने अविश्वसनीय और गलत परिणामों के कारण जैव कीटनाशकों का उपयोग करना बंद कर दिया है। इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि तैयार किए गए जैव कीटनाशक अपनी गतिविधि में विश्वसनीय, विशिष्ट, स्वदेशी और प्रकृति योग्य होने चाहिए। चूंकि किसान जैव कीटनाशकों के अंतिम उपयोगकर्ता हैं, इसलिए जैव-उत्पादों के बारे में उनकी विचार जानना भी आवश्यक है क्योंकि यह कृषि प्रणालियों में उपयुक्त जैविक नियंत्रक उपायों के सुझावों और आवश्यकताओं का पूर्वाभास देते है।
5. अर्थव्यवस्था/सब्सिडी
उद्यमियों को मुफ्त प्रशिक्षण, जरुरत पडने पर संस्थागत ऋण का प्रावधान, आवष्यक सब्सिडी, बीमा, और संभावित करों से छूट, आदि देकर जैव कीटनाशकों के उत्पादन को प्रोत्साहित कर सकते हैं। छोटी-छोटी इकाई बनाकर स्थानीय स्तर पर विभिन्न प्रकार के जैव कीटनाषकों का उत्पादन कर स्थानीय किसानों को उपलब्ध कराया जा सकता है। इकाईयों को षुरू करने के लिए राज्य एवं केन्द्र सरकारों द्वारा छोटे उद्यमियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना चाहिए जिससे कि अधिक संख्या में इकाईयां स्थापित की जा सकें।
भारत में जैव कीटनाशकों को अपनाने में आने वाली मुख्य चुनौतियाँ
जैव कीटनाशकों को अपनाने में प्रमुख किसानों की अनभिज्ञता हैं, अतः जैव कीटनाशकों से परिचित किसी जानकार के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है अतः कीटनाषक विक्रेताओं को जैव कीटनाषकों की उपयोगिता, लाभ तथा प्रयोग विधि के लिए प्रषिक्षित किया जाना चाहिए। जैव-कीटनाशकों को अक्सर एक विशिष्ट कीट के लिए लक्षित किया जाता है, जबकि परंपरागत रसायन कीटनाषकों के उपयोग से एक ही बार में कई प्रकार के कीटों को मार सकते हैं। जैव-कीटनाशकों को अपनाने में आने वाली कुछ महत्वपूर्ण मुख्य चुनौतियों पर नीचे चर्चा की गई हैः
1. बायोकंट्रोल एजेंट के चयन और विकास में कठिनाइयाँ
भारत में कुल जैव कीटनाशक उत्पादों में कवक का प्रतिशत सबसे अधिक है। बाजार में ट्राइकोडर्मा आधारित जैव कीटनाशकों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है परन्तु ट्राइकोडर्मा की केवल दो प्रजातियांॅ ही कीटनाषक की तरह उपयोग की जा रही हैं। जो इस क्षेत्र में अनुसंधान की कमी या अपर्याप्त ज्ञान को दर्षाता है। अतः ट्राइकोडर्मा एवं कवक की अन्य प्रजातियों को भी जैव कीटनाषकों के रूप में चिहिन्त करने की आवष्यकता है। अब तक पादप रोगाणुओं के जैव नियंत्रण के संबंध में मुख्यतः ऐसे जीवाणुओं पर षोध किया गया है जो विजाणु जनक होते हैं। गैर-बीजाणु जनक जीवाणु, जैसे सेराटिया एंटोमोफिला और क्रोमोबैक्टीरियम सबत्सुगे आदि की कीटनाषक क्षमता का परीक्षण किया जाना चाहिए।
2. अच्छी फॉर्मूलेशन तकनीक की आवश्यकता
जैव कीटनाशक उत्पादन के लिए उच्च गुणवत्ता वाली निर्माण प्रक्रियाओं की कमी है। अभी भी सूक्ष्म जीव आधारित जैव कीटनाशकों की प्रमुख चुनौती समुचित वाहक सामग्री जिसमें सूक्ष्मजीव की वृद्धि दर को बढ़ाने की क्षमता हो। विषाणु आधारित जैव कीटनाशकों के उत्पादन संयंत्रों में एक अलग कीट पालन की सुविधा होनी चाहिए और वायु परिसंचरण दूषित पदार्थों से मुक्त होना चाहिए।
3. निर्माण और पैकेजिंग के लिए अनुभवी लोगों की आवश्यकता
जैव कीटनाषकों के लिए विषिष्ट निर्माण एवं पैकेजिंग की आष्यकता होती है जिससे कि प्रयुक्त सूक्ष्मजीव का सक्रिय अवस्था में भण्डारण किया जा सके। उद्योग के व्यक्तियों को वायरस आधारित जैव नियंत्रण उत्पादो के विकास के लिए आवश्यक निर्माण प्रौद्योगिकियों में गहन अनुभव होना चाहिए। भारत में पैकेजिंग, जैव कीटनाशकों के उपयोग को प्रभावित करने वाली प्रमुख बाधाओं में से एक है। पैकेजिंग इस प्रकार की होनी चाहिए जिसमें उत्पाद की गुणवत्ता सुनिश्चित हो ताकि अंतिम उपयोगकर्ता की अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके।
4. प्रयोग तकनीक से अनभिज्ञता
जैव कीटनाशकों के कम लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण वितरण एजेंटों को परिवहन, भण्डारण एवं अनुप्रयोग के प्रषिक्षण का अभाव है। अधिकांश भारतीय फर्म कोटिंग सामग्री के रूप में टैल्कम पाउडर (50-80 माइक्रोन कण आकार के साथ) का उपयोग कर रही हैं। परन्तु इसके प्रयोग एवं भण्डारण की प्रयाप्त जानकारी न तो वितरकों को है न ही किसानों को। इसलिए ठोस बायोपेस्टीसाइड फॉर्मूलेशन का उपयोग सही ढंग न होने के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता।
5. प्रतिरोध का विकास
समान्यता रोगाणुओं में जैव कीटनाषकों के प्रति कुछ वर्षों में ही प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाती है। जिससे जैव कीटनाषकों का प्रभाव कम हो जाता है। माइक्रोबियल रोगजनकों के विभिन्न समूहों में बी थुरिंजिनेसिस के प्रतिरोध के विकास को सबसे अधिक सूचित किया गया है। पिछले कुछ वर्षों के भीतर, कम से कम 16 कीट प्रजातियों की पहचान की गई है जो प्रयोगशाला में बी थुरिंगिनेसिस 8-एंडोटॉक्सिन के प्रतिरोध को प्रदर्षित करती हैं। प्रतिरोधों के विकास की समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कुछ समय बाद जैव कीटनाषकों का उपयोग विफल होने लगेगा।
6. प्रदर्शन और शेल्फ जीवन
कुछ जैव कीटनाशक कम प्रभावी एवं लक्षित कीटों को ही मारने की उनकी क्षमता होती है। यू.वी. प्रकाश एवं शुष्कन प्रक्रिया सूक्ष्मजीव आधारित कीटनाशकों की प्रभाविता को कम कर देता है। ज्यादातर फुटकर और थोक ऑर्डर, तापमान और आद्र्रता के प्रति संवेदनशीलता के कारण तरल पर दानेदार फॉर्मूलेशन को प्राथमिकता दी जाती है।
जैव कीटनाशकों की सीमाएं
किसान रासायनिक कीटनाशकों के विकल्प के रूप में पौधों के उत्पादों का उपयोग करने के महत्व को महसूस करते हैं। प्रतिरोध प्रबंधन, जैसा कि रसायनिक कीटनाशकों के साथ होता है, का अभ्यास करना आवष्यक होगा। इन जैव उत्पादों को लोकप्रिय होने में अभी समय लगेगा। जैव कीटनाशकों की निम्नलिखित सीमाएँ हैं-
>जैव कीटनाशकों की अनुपलब्धता
> जैव कीटनाशक की सीमित शेल्फ जीवन
> गुणवत्ता वाले जैव कीटनाशकों की अपर्याप्तता
> लगातार जैव कीटनाशकों के खेत में परिणाम की निगरानी
> प्रकाश और गर्मी के वातावरण में अस्थिरता
> खेत की परिस्थितियों में जैव कीटनाशकों की धीमी प्रक्रिया और अप्रत्याशित स्थिरता
> जैव कीटनाशकों के विकास और उत्पादन की महंगी विधि
निष्कर्ष
प्रचुर उपलब्धता एवं तीव्र प्रभाव के कारण आज भी रसायनिक कीटनाषक किसानों में अधिक लोकप्रिय हैं। हलांकि इनकी कीमत एवं पर्यावरणीय दुष्प्रभाव दोनों ही अधिक है। इनके प्रयोग से अनाज उत्पादन मे बहुत तेजी से वृद्धि हुई, कुछ समय बाद देखा गया कि रसायनिक कीटनाषकों के प्रयोग से जीवों और मनुष्यों पर न केवल नकारात्मक प्रभाव पडा रहा बल्कि साथ ही साथ फसलों की उत्पादकता भी घटी है। इस नकारात्मक प्रभाव के कारण धीरे धीरे जैव कीटनाषकों के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ी है तथा यह रसायनिक कीटनाषकों के विकल्प के रुप में कई क्षेत्रों में प्रयोग भी हो रहे है। लेकिन भारत में अभी भी जैव कीटनाषकों के उत्पादन, भण्डारण, वितरण एवं प्रयोग का समुचित प्रबन्ध नहीं हैं। क्योंकि भारत में जैव कीटनाशकों के विकास से संबंधित वैज्ञानिक और तकनीकी हस्तक्षेप कम हैं। इसके अलावा जमीनी स्तर पर तंत्र की समझ की कमी, जैव-उत्पादों पर विश्वसनीयता की कमी और कीट नियंत्रक के बाजार में प्रवेश की अनुपस्थिति है। यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका में माइक्रोबियल बायोकंट्रोल एजेंटों के लिए रूपरेखा और निर्देश भी भारतीय प्रणाली की तुलना में कम जटिल और अधिक लचीले हैं। भारत में जैव कीटनाशकों के व्यापक उपयोग के लिए कुटीर उद्योगों के साथ साथ बड़े उद्यमियों एवं सरकार को साथ मिलकर कार्य करना चाहिए और तंत्र की जटिलता को कम करते हुए इनके उत्पादन को बढ़ावा देना होगा। जैव कीटनाषकों को किसानों में लोकप्रिय करने के लिए स्थानीय वितरकों को प्रषि़क्षित करने की आवष्यकता है।