मोदी सरकार ने जनता से किया गया अपना एक और वादा पूरा किया। तीन नये कृषि-बिल लोक-सभा तथा राज्य-सभा, दोनों सदनों से पास करा लिये गये। विपक्ष देखता रह गया। लोक-सभा में तो बीजेपी का बहुमत है ही। राज्य-सभा में कुछ मर्यादा-तोड़ कृत्य अवश्य हुए, पर वह सब किसी काम नहीं आया। संख्या-बल में कम होने के बावजूद, राज्य-सभा में इन बिलों के पास हो जाने के पीछे एक बड़ा कारण तो शायद यही था, कि विपक्षी-पार्टियों के अनेक सदस्य भी इन बिलों को किसानों के हित में देख रहे थे और इस कारण वे राज्य-सभा से अनुपस्थित रह कर इन्हें पास कराने में मददगार रहे।
हमारे देश में यह आम बात-सी हो गयी है कि राजनीतिक पार्टियाँ सामान्य चुनाव से पहले अपना एक घोषणा-पत्र तैयार करती हैं और उसके माध्यम से वे जनता से वादा करती हैं कि चुनाव जीतने के बाद वे अमुक-अमुक कार्य करेंगी। वे अपने इन वादों का चुनाव के दौरान बढ़-चढ़ कर प्रचार-प्रसार भी करती हैं। यह बात और है कि अकसर जब वह ‘पावर’ में आ जाती हैं, तो जनता से किये गये अपने वादे भूल जाती हैं। बीजेपी अपने स्थापना-काल से ही देश से जुडे़ कुछ ऐतिहासिक मुद्दांे को अपना उद्देश्य बनाकर काम करती रही है। 2013-14 के दौरान बीजेपी जब श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी, तब उसने एक बार फिर अपने इन वादों को देश के समक्ष रखा और चुनाव जीतने की दशा में उन्हें पूरा करने की सपथ ली। संयोगवश, वे चुनाव जीत गये और उसके बाद वे अपने वादों को अमलीजामा पहनाने में जुट गये। उन्होंने एक-एक करके अपने इन एजेंण्डों पर काम करते हुए उन्हें पूरा करना शुरू कर दिया।
मजेदार बात यह रही, कि विपक्षी पार्टियाँ, जो बीजेपी पर वादा-खिलाफी का तोहमद लगाकर उन पर तंज कसती रही हैं, वे ही अब जब बीजेपी के अपने वादे पूरे होने लगे हैं, तो उल्टा उनका विरोध करने लगी हैं और उनके कामों में खोट निकालने लगी हैं। दरअसल, वे यह पचा नहीं पा रही हैं, कि आर्टिकल 370 एवं 35ए जैसे पेचीदे कानूनों को भी बीजेपी निरस्त कर पाएगी। क्योंकि बीजेपी को हमेशा डराया-धमकाया जाता था, कि उसके ऐसा कुछ करने पर पूरा कश्मीर जल उठेगा। वहाँ भारत का तिरंगा झण्डा उठाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। पर बीजेपी डरी नहीं। उसने यह काम बहुत सोच-समझ कर और पूरी तैयारी के साथ किया। परिणाम यह हुआ, कि वहाँ ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ, जिसका अन्देशा किया जा रहा था। आज कश्मीर के लोग भी देश के अन्य हिस्सों के लोगों की भाँति भारत के नागरिक बनकर जीने में खुशी महसूस कर रहे हैं। ऐसे कई और भी कार्य हैं, जिनको बीजेपी सरकार योजना-बद्ध तरीके से पूरा करती जा रही है। नामुमकिन-से लगने वाली बातों को मुमकिन करती जा रही है। चाहे वह तीन-तलाक का मामला हो, सी.ए.ए. कानून लागू करने की बात हो, राम-मंदिर के निर्माण की बात हो अथवा तमाम अन्य ऐसे मसले, जो देश के हित में हैं, और उनमें कई तो कोढ़ की तरह वर्षों से देश के अंग-अंग को गला रहे थे, उन्हें ठीक किया जा रहा है।
हम सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और बिना किसानों की समस्याओं को दूर किये, देश खुशहाल नहीं हो सकता। मोदी सरकार के आने के बाद यह बात उठने लगी थी, कि क्या प्रो.एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने किसान-आयोग की संस्तुतियों का क्रियान्वयन किया जाएगा? क्योंकि आयोग ने तो अपनी सिफारिशें कई वर्ष पूर्व कांग्रेस के शासन-काल में ही सरकार को उपलब्ध करा दी थी। पर कांग्रेस सरकार बड़े बदलावों के लिए हिम्मत जुटा नहीं पायी और उसने उन्हें ठण्डे बस्ते में डाल दिया। न तो उन पर कभी कोई चर्चा हुई और न ही उनके क्रियान्वयन हेतु कोई कदम उठाए गये। किन्तु बीजेपी के सरकार में आने के बाद ही इन सिफारिशों को लेकर उनसे सवाल किये जाने लगे। मजेदार बात यह थी कि सवाल पूछने वालों में कांग्रेस के लोग भी पीछे नहीं थे।
मोदी जी ने खेती-किसानी को प्राथमिकता में रखते हुए 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का ऐलान कर दिया। और फिर उस लक्ष्य की प्राप्ति के उपाय ढूँढे़ जाने लगे। किसान-आयोग की सिफारिशें इसमें बड़ी मददगार साबित र्हुइं। सरकार ने आयोग की तमाम सिफारिशों को केन्द्रित कर योजनाए बनायीं और उन पर काम करना शुरू कर दिया। दरआसल, तीन नये कृषि बिल जो अभी-अभी लोक-सभा और राज्य-सभा में पास किये गये हैं, ये उसी दिशा में उठाये गये कदम हैं।
स्वतंत्रता-प्राप्ति की बाद अँगरेजों से विरासत में मिली खेती-बारी बहुत ही बदहाल अवस्था में थी। पर समय के साथ हमारी कृषि में बदलाव आया और आज हम खाद्यान्न-उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भर हो गये हैं, अपितु निर्यात करने की स्थिति में पहुँच गये हैं। हमारी बेहतर स्थिति का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस वित्त-वर्ष की पहली तिमाही में लाकडाउन के कारण जहाँ देश की विकास दर में भारी कमी आयी है, वहीं कृषि-क्षेत्र में विकास दर 3.4 प्रतिशत रही। कोविड-महामारी के बावजूद यह वृद्धि काफी उत्साहवर्धक है। आज हमारा कृषि-क्षेत्र आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर रहा है। 2019-20 में खाद्यान्न का 29.50 करोड़ टन रिकार्ड उत्पादन हुआ है। इसी तरह 18.50 करोड़ टन दुग्ध-उत्पादन कर हम विश्व में प्रथम स्थान पर हैं। फल-सब्जियों आदि का उत्पादन 32 करोड़ टन वार्षिक हो रहा है। 332 लाख टन चीनी का उत्पादन कर हम विश्व में प्रथम स्थान पर हैं। यह कम उल्लेखनीय नहीं है, कि हमारे देश में केवल खाद्य-तेलों को छोड़कर, शेष सभी कृषि एवं खाद्य-पदार्थो का आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो रहा है। पर सवाल यह है, क्या हम इन पदार्थो के अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन का सही ढंग से प्रबंधन कर पा रहे हैं? विश्व में प्रथम अथवा द्वितीय स्थान पर होने के बावजूद, कृषि-विश्व-व्यापार में हमारी उपस्थिति नगण्य क्यों है? खाद्य-प्रसंस्करण एवं मूल्य-सम्वर्धन की स्थिति तो और भी दयनीय है। इसका परिणाम है, कि हर साल लगभग 16 प्रतिशत फल एवं सब्जियाँ, 10 प्रतिशत खाद्यान्न, दालें और तिलहन खराब हो जाते हैं। उचित भण्डारण-व्यवस्था न होने के कारण किसान अकसर अपनी फसल को औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर होता है।
2020-21 में सरकार द्वारा एम.एस.पी. पर खरीद, परिवहन, भण्डारण, रखरखाव, व्याज आदि की लागत जोड़कर सरकार को गेहूँ का आर्थिक मूल्य 28,838 ýपये प्रति टन और चावल का 37,267 ýपये प्रति टन पड़ा है। यही कारण है कि खाद्य-सब्सीडी का भार बेतहासा बढ़ता जा रहा है। इस बेकाबू होते खाद्य-सब्सीडी को देखते हुए, इस व्यवस्था में तत्काल सुधार की आवश्यकता है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया तो वास्तविक राजकोषीय घाटा काफी बढ़ जाएगा और हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। सबसे बड़ा सवाल तो किसान को मिलने वाले लाभ को लेकर है। क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य तो आखिर न्यनतम मूल्य ही है। भला यह उसकी आमदनी बढ़ाने का जरिया कैसे हो सकता है? उसे बेहतर तथा लाभकारी कीमत मिले, उसके लिए कोई कदम उठाना तो आवश्यक था ही। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, क्या यह आवश्यक नहीं है कि कृषि खरीद, भण्डारण, प्रसंस्करण एवं निर्यात जैसे विषयों पर विचार कर ऐसे कदम उठाये जाएँ, जिससे कि किसानों को उनकी उत्पाद की लाभकारी कीमत मिल सके। उससे देश की आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा, क्योंकि कृषि का हमारी अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
1991 भारत के इतिहास में एक ऐसा मुकाम है, जब भारतीय बाजार अन्तरराष्ट्रीय व्यापार एवं इन्वेस्टमेंट के लिए मुक्त कर दिया गया था। उसका सकारात्मक प्रभाव भी हमारी अर्थ-व्यवस्था पर देखने को मिला। मुक्त बाजार की उद्घोषणा के बाद से पिछले 30 वर्षों में हमारी प्रति-व्यक्ति-आय लगभग चार-गुनी हो गयी। जबकि उसके पूर्व के लगभग 40 वर्षों में यह वृद्धि केवल दो-गुनी रही। दुर्भाग्यवश, उक्त सुधार में कृषि-व्यवसाय को सम्मिलित नहीं किया गया। उसे मुक्ति नहीं मिली। बल्कि कृषि-व्यापार ए.पी.एम.सी. एक्ट के दलदल में दिन-ब-दिन धँसता चला गया और इस तरह किसानी कभी लाभकारी व्यापार नहीं बन पायी। किसान बेचारा बनकर रह गया। यों तो आजादी के बाद से ही किसानों की समस्याओं को लेकर चर्चाएँ होती रही हैं। पर सबसे पहले लिखित रूप में इस तरह के सुधारों की सिफारिश वी.पी. सिंह की सरकार में दो उच्चाधिकार प्राप्त समितियों ने की थी, जिनके अध्यक्ष दो विख्यात कृषि-अर्थशास्त्री एवं किसान नेता भानुप्रताप सिंह एवं शरद जोशी थे। तत्कालीन सरकार ने इन संस्तुतियों को स्वीकार भी कर लिया था, परन्तु कानूनी स्वरूप देने से पहले ही सरकार गिर गयी। बाद की सरकारों के दौरान भी संसदीय समितियों की दर्जनों रिपोर्टों, पंचवर्षीय योजनाओं के दस्तावेजों तथा कई विशेषज्ञ समितियों के प्रतिवेदनों में इन्हें मुख्यतः से रेखांकित किया जाता रहा। परन्तु किसी भी सरकार ने इन्हें अमल में लाने की पहल नहीं की।
यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व-काल में भी किसानों की इन समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने के उद्देश्य से तीन अलग-अलग कमेटियाँ बनायी गयीं, जिनका उद्देश्य क्रमशः ए.पी.एम.सी एक्ट की मकड़जाल से किसानों को छुटकारा दिलवाना, फूड-प्रोसेसिंग एवं मूल्य-सम्वर्धन (वैल्यू एडीशन) तथा कृषि-विकास हेतु आवश्यक परियोजनाओं पर विचार कर अपनी संस्तुति देना था। इन कमेटियों की अध्यक्षता क्रमशः हरियाणा राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भूपेन्द्र सिंह हूडा, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्रीमान मोण्टेक सिंह अहलूवालिया ने की थी। यहाँ हूडा साहब की कमेटी की एक संस्तुति पर ध्यान देना जरूरी होगा, क्योंकि नये बिलों के परिपेक्ष्य में वह ज्यादा प्रासंगिक लगती है।
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स्पाष्ट है कि हूडा साहब की कमेटी ने एक स्वर से कृषि-बाजार को मुक्त करने के साथ-साथ वर्तमान में चल रहे ए.पी.एम.सी ऐक्ट जैसे प्रावधानों को, जो मुक्त बाजार में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, उन्हें समाप्त करने की संस्तुति की थी। उन्होंने ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ को भी अप्रासंगिक बताया और कहा कि उनका उपयोग आपात-कालीन प्रस्थितियों में ही होना चाहिए। पर अफसोस, न जाने क्यों इन कमेटियों की सिफारिशों को तत्कालीन सरकार ने संज्ञान में नहीं लिया और इस तरह पूर्व की तमाम सिफारिशों की भाँति ये भी धूल चाटती रहीं। यही नहीं, कांग्रेस पार्टी ने तो 2014 और 2019 के चुनाव में अपने पार्टी के एजेंण्डे में भी ए.पी.एम.सी. एक्ट को समाप्त करने की बात कही थी। यों तो वे चुनाव हार गये, पर क्या यदि वे चुनाव जीत गये होते, तो भी वे ऐसे क्रांतिकारी कदम उठा पाते? उनका पिछला रिकार्ड तो इसके विपरीत ही जाता है। वास्तविकता यह है कि बीजेपी को अवसर मिला और उसने इसे पार्लियामेन्ट से पास कराकर सारा श्रेय अपने नाम कर लिया। शायद यही बात अब कांग्रेस को खटक रही है और वे इसे काला कानून बता रहे हैं।
नीति आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कांत ने कहा है कि 2020 के ये बिल 1991 की भाँति भारतीय अर्थ-व्यवस्था में ‘वाटरशेड मोमेन्ट’ यानी ऐतिहासिक क्षण के तौर पर याद किये जाएँगे। उन्होंने बताया कि पूर्व में जब भी किसानों की आय बढ़ाने की चर्चा हुई है तब प्रमुख रूप से जिन तीन बातों की ओर लोगों का ध्यान गया है, उनमें पहली कृषि-विपणन की एक-मात्र प्रणाली ए.पी.एम.सी. व्यवस्था को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना और उसके लिए खरीद-फरोख्त के वैकल्पिक मार्ग ढूँढ़ना रहा है। दूसरी चिन्ता लघु एवं सीमांत किसानों की आय बढ़ाने को लेकर रही है। उसके लिए कान्टैªक्ट फार्मिंग की आवश्यकता समझी गयी, और तीसरी थी, आवश्यक वस्तु अधिनियम को समाप्त करना ताकि प्राइवेट सेक्टर के लोग कृषि में निवेश कर सकें। बीजेपी सरकार ने इन तीनों समस्याओं को ध्यान में रखते हुए नये बिल लोक और राज्य-सभा से पास करा कर एक क्रांतिकारी पहल की है। सच तो यह है कि आजादी के दशकों बाद आज किसानों के साथ-साथ व्यापारी एवं उपभोक्ता भी आजाद हो पाये हैं। अन्यथा ए.पी.एम.सी. के मकड़जाल में फँसकर किसान अपना माल कम दाम पर बेचने को मजबूर रहता, वहीं ए.पी.एम.सी. से जुडे़ अढ़तिये अधिक दाम पर रिटेलर्स को बेच कर पैसा कमाते और फिर रिटेलर्स अपने प्राफिट के साथ किसानों को मिले मूल्य से 4-5 गुना दाम पर उपभोक्ता को बेचते।
वरिष्ठ पत्रकार जग सुरैया ने एक मजेदार उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसमें कुछ आँकडे़ जोड़कर मैं यहाँ पेश कर रहा हूँ। कोई दर्जी एक कमीज सिलकर अपनी मेहनत और खर्चे को जोड़कर उस कमीज को किसी ग्राहक को चार सौ ýपये में बेचने को तैयार है। तभी मण्डी यानी कोई सरकारी संस्था बीच में कूद पड़ती है और उसे सीधे-सीधे ग्राहक को बेचने से मना करती है और अपने ढंग से उस कमीज की कीमत तीन-सौ ýपये निर्धारित करती है। फिर मण्डी उस कमीज को रिटेलर को छः सौ ýपये में बेचती है, जो अपने ग्राहक को नौ सौ ýपये में बेचता है। इस तरह जहाँ ग्राहक दर्जी से सीधे खरीदने में केवल चार सौ ýपये खर्च करता, जिसमें दर्जी को डेढ़ सौ ýपये का फायदा भी होता, वहीं वह मण्डी के रास्ते रिटेलर के पास आयी कमीज को नौ सौ ýपये में यानी पाँच सौ ýपये अधिक दाम देकर खरीदता है। दर्जी की जगह किसान को रखकर देखें। वह उसी तरह छला जाता है जैसे वह दर्जी। और उपभोक्ता वही माल कई गुना दाम देकर खरीदता है। इन नये कानूनों के आने के बाद यह सिलसिला समाप्त हो जाएगा। व्यापारी और उपभोक्ता सीधे-सीधे किसान से माल खरीद सकेंगे। इस तरह किसान को न तो किसी बिचौलिये को कमीशन देना होगा और न ही वाहन का खर्च आदि।
किसानों की आय दुगुनी करने के दो प्रमुख उपाय हैं। एक, कम-से-कम लागत के साथ प्रति एकड़ उपज में वृद्धि करके और दो, किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करके। प्रति एकड़ उपज बढ़ाने के उद्देश्य से कृषि-शोध-प्रसार से जुड़ी सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं ने तकनीकी पैकेज तैयार कर किसानों के खेत पर प्रदर्शन के द्वारा उनका प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज के समय देश में तमाम ऐसी तकनीकें उपलब्ध हैं, जिन्हें अपना कर किसान अपनी उपज को दो-से-तीन गुना तक बढ़ा सकता है। ऐसे तकनीकों का भरपूर फायदा तभी सम्भव है, जब किसानों को समय से गुणवत्ता-युक्त बीज, खाद, दवाइयाँ आदि मिल सकें और किसान समय से खेती कर सके। यह सर्वविदित है कि यदि फसलों की बुवाई समय से कर दी जाय, तो उपज में वैसे ही 12-15 प्रतिशत तक की वृद्धि हो जाती है। यह सुखद संयोग है कि इनपुट की उपलब्धता अब पहले से बहुत बेहतर हुई है। किसानों को बीज, खाद आदि समय से पूर्व उपलब्ध कराई जा रही हैं। और यह उसी का परिणाम है कि कोरोना संक्रमण के कारण उत्पन्न कठिनाइयों के बावजूद देश में अन्न उत्पादन में बढ़ात्तरी हुई है। कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ विकास दर अप्रत्याशित रूप से अधिक रही है।
किसानों की आय दोगुनी करने की पहली शर्त उपज में बढोत्तरी तो है ही, परन्तु असली फायदा तो तब होगा जब उसे अपने उत्पाद का लाभकारी मूल्य प्राप्त हो। काफी समय से हमारी सरकारों ने अलग-अलग तरीकों से कृषि-विपणन को लाभकारी बनाने हेतु कदम उठाती रही हैं। न्यूनतम समर्थन मुल्य उनमें से एक है। इसने किसानों को कुछ राहत अवश्य दी है। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने फसलों की लागत मूल्य से डेढ़-गुना अधिक मूल्य निर्धारित कर एक बड़ा कदम उठाया। प्रदेश सरकारों पर दबाव बनाकर इस योजना के क्रियान्वयन पर जोर दिया गया। काफी हद तक सफलता भी मिली है और किसानों की आमदनी में इजाफा हुआ है। परन्तु यह देखा गया है कि अब तक के सारे प्रयासों के बावजूद किसानों की आय दोगुनी कर पाना सम्भव नहीं है। इसलिए भारत सरकार ने विपणन-प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के उद्देश्य से इन बिलों के माध्यम से किसानों के लिए कुछ नये विकल्प प्रस्तुत किये हैं। आशा की जाती है कि इनके माध्यम से किसानों की आय में निश्चित रूप से बढ़ोत्तरी की जा सकेगी।
‘कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य कानून’ (मुक्त बाजार) किसान को अपना उत्पाद देश मे कहीं भी जहाँ उसे अच्छी-से-अच्छी कीमत मिले, बेचने की छूट देता है। इसका मतलब यह नहीं है कि ए.पी.एम.सी एक्ट का प्रावधान समाप्त कर दिया जायेगा। यह विकल्प तो यथावत बना रहेगा और जो किसान उसके माध्यम से अपना माल बेचना चाहेंगे, वे वैसा पहले की तरह ही कर सकेंगे। फिर सवाल यह है कि नये प्रावधान से किसान को फायदा कैसे होगा? नया कानून किसान को अपना उत्पाद मुक्त बाजार में बेचने की छूट देता है। अभी तक किसान अपना माल नीजी अथवा किराये के वाहन द्वारा मण्डी में ले जाकर अपने अधिकृत कमीशन एजेण्ट के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचता रहा है। उसे वहाँ मण्डी-शुल्क देना पड़ता है तथा अकसर अशुद्धता तथा नमी का बहाना बनाकर अढ़तिये 1.5 से 3 प्रतिशत मूल्य में कटौती करते हैं। यह खरीद कुछ निश्चित समय (60-65 दिन) के भीतर चलती है। निर्धारित तिथि समाप्त हो जाने के बाद अढ़तिये न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के बजाय अपने तयीं निर्धारित मूल्य पर किसान का उत्पाद खरीदते हैं, जो समर्थन मूल्य से काफी कम होता है।
नयी व्यवस्था में यदि कोई गल्ला-व्यापारी किसान के पास जाकर उसका माल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदता है, तो भी किसान फायदे में ही रहेगा, क्योंकि उसे न तो माल की ढुलाई (वाहन), लदायी/उतरायी का खर्च देना होगा और न ही कमीशन एजेण्ट की दलाली। एक बात और। चूँकि किसान के पास एक से अधिक अढ़तियों के आने की सम्भावना है, इस तरह प्रतिस्पर्धा बढ़ने से उसे समर्थन मूल्य से भी ज्यादा भाव मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसका प्रभाव मण्डी पर भी पडे़गा। मण्डियों को अपनी खरीदारी सुनिश्चित करने के लिए किसानों को प्राइवेट खरीदारों की तुलना में बेहतर या कम से कम बराबर भाव और सुविधाएँ उपलब्ध करानी पड़ेंगी। इस प्रतिस्पर्धा के खेल में किसानों का ही फायदा होगा।
‘मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा कानून’ (अनुबन्ध कृषि) बनने के बाद किसान अनुबन्ध के आधार पर खेती करने के लिए स्वतंत्र है। ऐसा नहीं कि वर्तमान में कान्टैªक्ट फार्मिंग नहीं हो रही है। पर मौजूदा अनुबन्ध कृषि का स्वरूप अलिखित है। इस नये कानून द्वारा किसानों का हित सुरक्षित रहेगा। यह कानून देश में 86 प्रतिशत लघु और सीमांत किसानों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यह उनकी आमदनी बढ़ाने का एक मात्र जरिया है। क्योंकि छोटा किसान बड़ा रिस्क नहीं ले सकता। उसके पास आवश्यक संस्साधन भी नहीं होते तथा उसकी लागत ज्यादा आती है। वह जैसे-तैसे खेती करता है, जिसमें प्राफिट का कोई सवाल है ही नहीं। कान्टैªक्ट फार्मिंग प्राइवेट-सेक्टर जैसे प्रसंस्करण ईकाइयों, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों आदि के लिए द्वार खोलती है, जिससे बेहतर और लाभकारी खेती की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। इस प्रणाली में किसान कान्टैªक्टर के साथ आपसी सहमति से अपने उत्पाद का मूल्य बुवाई से पूर्व निर्धारित करता है, जो गारण्टीड न्यूनतम मूल्य होता है। पर वास्तव में यदि ‘मार्केट-रेट’ ज्यादा होता है, तो कान्टैªक्टर उसे बढ़ा हुआ रेट देता है। साथ ही कान्टैªटर सभी तरह के रिस्क लेने को तैयार होता है। इन अधिनियमों में ऐसे प्रावधान किये गये हैं जिससे किसानों के हित सुरक्षित रहें। कृषि-अनुबन्ध एवं मूल्य-निर्धारण में कृषि-संगठन जैसे एफ.पी.ओ., जो किसानों की ही एक संस्था है, किसानों को मदद देती हैं। इसका एक उदाहरण सहयाद्री फार्मर्स प्रोड्यूसर्स कम्पनी लिमटेड है। छोटे स्तर से शुरू कर आज यह संगठन अंगूर एवं अन्य फसलों के निर्यात के मामले में सबसे आगे है। आठ हजार से ज्यादा सीमांत किसान इस संगठन से जुडे़ हैं, जो हर सीजन में 16 हजार टन से ज्यादा अधिक अंगूर निर्यात करते हैं। इससे किसानों की आमदनी में इजाफा होता है। निःसन्देह अकेला किसान ऐसा कुछ नहीं कर सकता, फिर उसकी आमदनी कैसे बढे़गी! निर्यात की सम्भावनाओं को देखते हुए किसान अपने फसल-चक्र में विविधता ला सकते हैं, जिससे उनके आमदनी का दायरा और भी बढ़ जाता है। अभी तक तो अधिकतम किसान गेहूँ-चावल की खेती ही करते आये हैं।
1955 में बना ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तर्कहीन स्पाइक में सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया था। यह ऐसी वस्तुओं में जमाखोरी और कालाबाजरी करने वालों पर शिकंजा कसता है। राज्य की एजेंसियाँ हर किसी को लाइन में लाने के लिए छापामारी करती हैं और गलत काम करने वालों को दण्डित करती हैं। आज इस कानून की उतनी आवश्यकता नहीं रह गयी है। इसीलिए आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून द्वारा गेहूँ, चावल, दाल, आलू, प्याज आदि जैसी वस्तुओं का ‘आवश्यक’ श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। क्योंकि आज लगभग इन सभी चीजों का उत्पादन आवश्यकता से अधिक हो रहा है और सरकार को उनके प्रबंधन हेतु बड़ा धन खर्च करना पड़ रहा है। इस अधिनियम के समाप्त हो जाने के बाद कृषि क्षेत्र में निजी एवं विदेशी निवेशक आकर्षित होंगे। क्योंकि निजी निवेशकों के अपने व्यावसायिक कार्यों में अत्यधिक विनियामक हस्तक्षेप की आशंका दूर हो जाएगी। फलस्वरूप, गोदामों और कोल्डस्टोरेज जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के साथ-साथ खाद्य-आपूर्ति-शृंखला के आधुनीकरण में मदद मिलेगी। खाद्य-आपूर्ति-शृंखला जब दुýस्त होगी, तब कीमतों में स्थिरिता आएगी। इसी तरह भण्डारण-व्यवस्था अच्छी होने पर अनाज की बर्बादी कम हो जाएगी।
अफसोस है कि इन बिलों को लेकर भ्रम और झूठ फैलाया जा रहा है। दूर्भाग्य है कि कुछ किसान भी इनके झांसे में आ रहे हैं। यह सुनकर हँसी आती है कि पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों में भी कान्टैªक्ट फार्मिंग को लेकर खेत का कब्जा समाप्त होने जैसी बातें हो रही हैं। मुझे याद है, जब मैं हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में कार्यरत था, यानी 70 के दशक में, तब से वहाँ कान्ट्रैक्ट फार्मिंग की जाती रही है। किन्तु आज तक किसी एक भी किसान ने अपनी जमीन छिन लिए जाने की बात नहीं कही। कहता भी कैसे, क्योंकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। कान्ट्रैक्ट फार्मिंग में कृषि-उत्पाद (उपज) का कान्टैªक्ट होता है, किसी और चीज का नहीं। फिर जमीन के चले जाने वाली बात तो सरासर झूठी है और किसानों को भ्रमित करने के लिए उठाई जा रही है।
विपक्ष के लोग अकसर कहते रहते हैं, कि व्यापारी अपनी माल की कीमत स्वयं निर्धारित करते हैं, तो फिर किसान क्यों नहीं? आखिर उसके माल की कीमत सरकार अथवा अन्य ऐजेंसियाँ क्यों निर्धारित करती हैं? अभी तक तो किसान अपना माल मण्डियों के माध्यम से बेचने के लिए बाध्य था, जिसके लिए उससे मण्डी-शुल्क तो वसूला जाता ही था, मण्डी से जुडे़ अढ़तिये और बिचौलिये उसके माल का मूल्य लगाते थे और इस तरह से किसानों का शोषण करते थे। नये कानून के आ जाने के बाद किसान अपने उत्पाद की कीमत स्वयं तय करेगा। जो ज्यादा कीमत देगा किसान उसे ही अपना माल बेचेगा, क्योंकि मण्डी में बेचना अब अनिवार्य नहीं होगा।
एक उदाहरण देखिये! लाकडाउन के दौरान जब मण्डियाँ ठप्प पड़ी रहीं, तब विकल्प के तौर पर कुछ किसानों ने स्वीगी और जोमैटो के माध्यम से अच्छा विजनेस किया और लाभ कमाया। यह पूछे जाने पर कि, ‘क्या मण्डी से इतर कोई वैकल्पिक स्थाई व्यावस्था सम्भव है,’ कृषि-अर्थशास्त्री डॉ. अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘क्यों नहीं?’ वे आगे बताते हैं, कि हमारे देश में दूध का इतना बड़ा कारोबार होता है, वह तो मण्डियों के माध्यम से नहीं होता और उसके विपणन की व्यवस्था इतनी पुख्ता है कि दूध बिना खराब हुए घर-घर में पहुँच जाता है। यही बात देश में अण्डे के व्यापार को लेकर है। फिर सवाल है कि, क्या अनाज, फल, सब्जी अथवा तेल आदि के लिए इस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था सम्भव क्यों नहीं है? फ्री मार्केटिंग का एक सबसे बड़ा पहलू स्पर्धा है। प्रतिस्पर्धा के कारण न केवल अच्छा दाम मिलता है, अपितु गुणवत्ता भी बनी रहती है। इसमें विचौलियों की कोई भूमिका नहीं होती और कीमत कम रहती है।
इस नये बिल के संदर्भ में निम्न बातें ध्यान में रखने योग्य हैं:-
- कृषि समवर्ती सूची अर्थात् राज्य का विषय है। इस बात से शायद बहुत-से लोग परचित न हों। ‘राज्य का विषय’ होने का मतलब यह है, कि खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं का समाधान, कृषि-शोध और विकास की जिम्मेदारी राज्य-सरकारों की है, न कि केन्द्र सरकार की। केन्द्र सरकार तो एक बाह्य एजेंसी के रूप में राज्य सरकारों को उनके कार्य-सम्पादन में बस मदद करती है। समय-समय पर किसानों की जरूरतों को देखते हुए, केन्द्र सरकार योजनाएँ बनाकर उनके क्रियान्वयन के लिए राज्य-सरकार को धन उपलब्ध कराती है। फिर भी यदि किसी राज्य-सरकार को ऐसा लगता है कि अमुक परियोजना उनके राज्य के हित में नहीं है, तो वह उसे अपने यहाँ लागू करने से मना कर सकती है। यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि बिहार सरकार ने 2006 में ही ए.पी.एम.सी एक्ट को समाप्त कर दिया था। तब से किसान अपनी उपज मुक्त बाजार में बेच रहे हैं। पिछले साल रबी सीजन की बात करें, तो प्राइवेट गल्ला-व्यापारियों ने किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य से 100-150 ýपये प्रति कुन्तल अधिक दाम देकर गेहूँ खरीदा था। किसानों को किसी प्रकार का अतिरिक्त व्यय जैसे ढुलाई का खर्च आदि भी नहीं देना पड़ा। केरल एक दूसरा ऐसा प्रदेश है, जहाँ ए.पी.एम.सी. एक्ट कभी लागू ही नहीं किया गया।
खैर, यह मुद्दा मैंने यहाँ इसलिए उठाया कि नये बिल के प्रावधान के अन्तर्गत यदि कोई राज्य सरकार इन कृषि बिलों के प्रावधानों को अपने प्रदेश में लागू न करना चाहे, तो वह उसके लिए स्वतंत्र है। केन्द्र सरकार उसे लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। इसलिए यह कतई उचित नहीं है कि ये सरकारंे इन कानूनों के विýध किसानों को भड़काकर माहौल खराब करें। - ध्यान देने योग्य बात यह है कि आन्दोलनकर्त्ता अथवा आन्दोलन को हवा देने वालों में से कोई भी नये कानूनों में प्रस्तुत प्रावधानों की बात नहीं करता, अपितु वह उन बातों को उठा रहा है जो इन बिलों में हैं ही नहीं। जैसे यही कि ए.पी.एम.सी. का प्रावधान समाप्त कर दिया जाएगा। इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं और कृषि मंत्री ने भी, यह स्पष्ट किया है कि नये प्रावधान वर्तमान प्रावधानों को प्रतिस्थापित नहीं करेंगे। वे पूर्ववत चलते रहेंगे। अर्थात् ए.पी.एम.सी. अपना काम करती रहेगी और यदि किसान उसके माध्यम से अपना उत्पाद बेचना चाहेंगे, तो वे वैसा कर सकेंगे। मण्डियाँ पहले की तरह ही काम करती रहेंगी। बल्कि इन मण्डियों को और अधिक आधुनिक बनाया जाएगा। नये अधिनियम तो किसानों को बस एक नया विकल्प उपलब्ध कराएँगे। यदि किसानों को लगेगा कि नये प्रावधानों के माध्यम से विपणन आसान और लाभकारी है, तो सम्भव है कि वह ए.पी.एम.सी. को भूल जाए और इस तरह, भविष्य में कभी ए.पी.एम.सी. का प्रावधान अपने आप अप्रासंगिक होकर समाप्त हो जाए। इसलिए इन मण्डियों को प्रासंगिक बने रहने के लिए अब प्राइवेट गल्ला-व्यापारियों से अपने को बेहतर साबित करना पड़ेगा।
इसी तरह एम.एस.पी. का प्रावधान भी बना रहेगा और हर सीजन में पूर्ववत खरीदारी होती रहेगी। हमने देखा भी है कि अभी कुछ समय पूर्व ही खरीफ की फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित किया गया था। कुछ प्रांतों में तो नये समर्थन मूल्य पर खरीद भी शुरू हो गयी है। इसी तरह 21 सितम्बर को नये बिलों के आने के बावजूद, रबी की फसलों की खरीद के लिए न्यूनतम मूल्यों की घोषणा भी कर दी गयी। यदि एम.एस.पी. का प्रावधान खत्म करना होता तो रबी की फसलों का समर्थन मूल्य क्यों घोषित किया जाता। सुखद बात तो यह है कि इस बार रबी में किसानों को गेहूँ के लिए 1925 प्रति कुन्तल की जगह 1975 ýपये मिलेंगे। यानी 50 ýपये प्रति कुन्तल की बढ़ोत्तरी की गयी है। इसी तरह, पिछले साल की तुलना में चने के लिए 225 ýपये, मसूर के लिए 300 ýपये तथा सरसों के लिए 225 ýपये प्रति कुन्तल की दर से बढ़ोत्तरी की गयी है। सीजन शुरू होने से पहले न्यूनतम मूल्यों की घोषणा इस भ्रम को तोड़ने के उद्देश्य से की गयी है कि एम.एस.पी. का प्रावधान समाप्त नहीं किया जाएगा, बल्कि और बेहतर तरीके से कार्यान्वित किया जाएगा। सरकार के लिए एम.एस.पी. पर खरीद इसलिए भी आवश्यक है कि उसे सस्ते गल्ले की दुकानों को चलाने के लिए उचित मात्रा में अनाज हर हाल में भण्डारित करना पड़ेगा। अतः किसान यह कतई भ्रम न पालंे कि नये बिलों के आने के बाद एम.एस.पी. समाप्त हो जाएगी। - कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से किसानों की जमीनें छिन जाने का डर एकदम बेबुनियाद है। जैसा की पूर्व में कहा गया है कान्टैªक्ट फार्मिंग महज उत्पाद यानी उपज का सौदा करता है, किसी अन्य चीज का नहीं। बल्कि यदि कान्टैªक्टर किसान की किसी मशीनरी अथवा अन्य संसाधन जैसे ट्यूवबेल का प्रयोग करता है तो वह उसे उनका उचित मुआवजा देता है। बड़ी कम्पनियों द्वारा कान्टैªक्ट के नाम पर किसानों का शोषण करने की बात सही नहीं है। क्योंकि पूर्व में किये गये करार से किसानों का निर्धारित दाम पाने की गारण्टी मिलेगी, लेकिन किसान को किसी करार में बाँधा नहीं जाएगा। किसी भी मोड़ पर किसान करार से निकलने के लिए स्वतंत्र होगा। कई राज्यों में किसान-संगठन पहले से ही कार्पोरेट के साथ गन्ने, कपास, चाय, कॉफी जैसे उत्पाद पैदा कर रहे हैं। छोटे किसानों को इससे बड़ा फायदा होगा, क्योंकि गारण्टीड मुनाफे के साथ नई टेक्टनोलॉजी और उपकरणों का लाभ मिलेगा।
- यह सवाल उठना लाजमी है कि यदि ये कानून किसानों के हित में है तो फिर इनका विरोध क्यों हो रहा है और उस विरोध में किसान क्यों शामिल है? किसानों को डर है कि नये कानूनों के लागू होने पर एम.एस.पी. प्रणाली समाप्त हो जाएगी, जो सही नहीं है। किसान का डर इसलिए है कि यदि वह मुक्त बाजार में अपना माल बेच नहीं पाएगा, फिर वह कहाँ बेचेगा? न्यूनतम मूल्य ही सही, उसकी गारण्टी तो एम.एस.पी. का कानून देता ही है। इसलिए किसान संवैधानिक गारण्टी चाहता है, जो सम्भव नहीं है। ऐसे प्रयोग विश्व में कई जगह किये गये, पर सफल नहीं हो पाये। नये कानून के विरोध में खड़े होने वालों में दूसरे वे लोग हैं जो कमीशन एजेण्ट और विचौलिये का काम करते हैं। इनकी संख्या 6 लाख से भी ज्यादा है और इनमें बडे़ और शक्तिशाली किसानों के साथ-साथ नामी-गिरामी राजनीतिक घरानों के लोग सम्मिलित हैं, जो उनके माध्यम से हजारों-लाखों ýपये हर साल कमाते रहे हैं। जरा सोचिए, जो पैसा इनकी झोली में जाता है, आखिरकार वह पैसा किसानों का ही तो है। फिर वह किसानों को क्यों न मिले? किसान और एजेण्टों के अतिरिक्त, नये कानून का विरोध तो कुछ राज्य सरकारें भी कर रही हैं, क्योंकि उन्हें मण्डी-शुल्क के रूप में मोटा राजस्व प्राप्त होता है। इनसे प्रभावित होने वाले राज्यों में मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा प्रदेश हैं। दुर्भाग्य से, विपक्षी पार्टियाँ, खास कर कांग्रेस, इसका विरोध कर रही है, जो पूर्व में इन सुधारों की हिमायत करती रही है।
यह सच है कि जिस दिन किसान मण्डियों के माध्यम से अपना माल बेचना छोड़ देंगे, इन सभी को मिलने वाले लाभ बन्द हो जाएँगे। इसी नाते ये लोग विरोध की आगी जला रहे हैं और सोचते हैं कि लैण्ड-बिल की तरह दबाव में आकर सरकार इन बिलों को भी वापस ले लेगी। किन्तु इस बार ऐसा होने वाला नहीं है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आय दो-गुनी करने का वादा कर रखा है और वे इन प्रावधानों को लागू करने में पूरा जी-जान लगा देंगे। क्योंकि वे जानते हैं कि ये ही विपक्षी अगले चुनाव के समय तंज कसेंगे कि मोदी ने किसानों की आय दो-गुनी करने का अपना वादा किया था, पर वे अपना वायदा पूरा करने में सफल नहीं हो पाये। श्री मोदी यह भी जानते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को महज उनकी लागत और थोड़ा ही लाभ दिला सकता है, इसलिए विपणन के क्षेत्र में कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने पड़ेंगे। और ये बिल उनके इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाये गये हैं। मोदी जी ने इस सुधारों को 21वीं सदी की जरूरत बताया है। इससे किसान आत्मनिर्भर बनेंगे। किसानों का उनकी पैदावार का अच्छा दाम मिलेगा। अभी तक किसानों के हाथ-पाँव बँधे हुए थे। अब उन्हें आजादी मिल गयी है। वे अपना उत्पाद देश के किसी भी हिस्से में अपनी शर्तो पर बेच सकेंगे। इन कानूनों से किसानों का देश के अलावा अन्तरराष्ट्रीय स्तर का बाजार भी प्राप्त होगा।