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    कुओं का इतिहास, उपयोगिता एवं वर्तमान स्वरूप

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    कुआँ या कूप जमीन को खोदकर बनाई गई एक ऐसी संरचना है, जिससे भूजल को प्राप्त किया जाता है। इसे फावड़े से खोदकर, ड्रिल करके अथवा बोर करके बनाया जाता है। कुएँ साधारणतया 30 से 100 फुट तक गहरे होते हैं, पर अधिक पानी के लिये 150 से 500 फुट तक के गहरे कुएँ भी खोदे गए हैं। कुछ रिपोर्टस के अनुसार कई देषों में तो कुएँ छह हज़ार फुट तक गहरे खोदे गए और इनसे बड़ी मात्रा में पानी प्राप्त किया गया। ऑस्ट्रेलिया में चार सौ फुट से अधिक गहरे कुएँ खोदे गए हैं, इनसे एक लाख से लेकर एक लाख चालीस हज़ार गैलन तक पानी प्रतिदिन प्राप्त हो सकता था। भारत में, पुराने समय में बड़े आकार के कुओं से टिन की बाल्टी की लड़ियां बनाकर पानी निकाला जाता था जिसका उपयोग पीने के लिए एवं सिंचाई में होता था। 1990 के दषक में इन कुओं में जलपम्प भी लगाये गये जिन्हें हाथ से या बिजली से चलाया जा सकता था। दुर्भाग्यवष, पिछले दषकों में पर्यावरण में हुए बदलाव के कारण भूजल का स्तर काफी गिर गया, जिसके कारण कुंए सूखने लगे और धीरे-धीरे इनकी सामाजिक उपयोगिता खत्म हो गयी, और इनकी पर्याप्त देख भाल न होने के कारण अब यह कुएं गंदगी से पटे हुए हैं। इस लेख में कुंओं का इतिहास, प्रकार, संरचना, सामाजिक महत्व एवं वर्तमान स्वरूप के साथ-साथ इनके जीर्णोद्धार की आवष्यकता पर प्रकाष डाला गया है।

    कुओं का इतिहास

    लगभग 10,000 वर्ष पुराना है क्योंकि कुओं के प्रमाण नवपाषाण युग (7,000 ईसवी से 10,000 ईसा) में मिलते हैं। जबकि सबसे पुराने पानी के कुएं का आंकलन 8000 साल पुराना माना जाता है। दुनिया के सबसे पुराने कुएं भारत, चीन, इजरायल में बनाये गये। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात कुआँ इज़राइल के ‘‘एटलिट याम’’ में खोजा गया था। पुरातत्वविदों के अनुसार इस कुएं को सन् 8100-7500 के बीच का बना हुआ बताया गया है। यूरोप में पाए जाने वाले अधिकतर नवपाषाणकालीन कुएं लकड़ी के बने हुए थे और इन पर लौह युग की दिनांक अंकित है। दुनिया का सबसे गहरा कुआं ब्राइटन, ईस्ट ससेक्स में है। प्राचीन काल में कुँए को खोदने के लिए किसी भी तरह की तकनीक नहीं थी सिर्फ हाथ, धातु और पत्थर के औजारों की सहायता से काफी बड़े व गहरे कुएं खोद कर मीठा और स्वच्छ जल निकाला जाता था। लेकिन बाद में लोहे, तांबे और कांसे के औजारों का उपयोग करके भी कुएं खोदने के प्रमाण मिले हैं। जैसे जैसे तकनीकी का विकास हुआ कुएं खोदने के लिए भी आधुनिक मषीनों का उपयोग किया जाने लगा। जैसे- पहली बार यांत्रिक ड्रिलिंग का उपयोग करके कुआं 1808 में खोदा गया। 18वीं षताब्दी में लकड़ी के ड्रिलिंग रिंग उपयोग में आने लगे थे, और फिर समय बीतने के साथ-साथ भाप से चलने वाली ड्रिलिंग मशीनों का उपयोग कुँए को खोदने के लिए किया जाने लगा। 19वीं षताब्दी में यांत्रिक ड्रिलिंग का उपयोग कुएं खोदने के लिए होने लगा जबकि 20वीं षताब्दी में रोट्ररी ड्रिलिंग से कुएं खोदने की तकनीक आम हो गयी।

    कुएँ के प्रकार

    खुदाई एवं गहराई के आधार पर कुंओं को प्रमुखतयाः चार प्रकार का बताया गया है, जो निम्नवत हैः-

    उथले कुएँ: भूमि की प्रथम प्रवेश स्तर तक की खुदाई करके उथले कुएँ का निर्माण किया जाता है। इन कुंओं की गहराई लगभग 30 फीट तक ही होती है । इन कुओं का जल प्रायः खारा होता है, जिसके कारण कुछ स्थानों पर यह जल पीने योग्य नहीं होता है।

    गहरे कुएँ: इन कुओं की गहराई लगभग 100 फीट तक होती है । इनका जल प्रायः शुद्ध, मीठा एवं पीने योग्य होता है।

    आर्टिजन कुएँ: इन कुएं को पाताल तोड़ कुआं भी कहा जाता है। जिन स्थानों पर भूजल स्तर बहुत नीचे होता था, उन स्थानों पर पाताल तोड़ कुओं का निर्माण किया जाता था । कभी-कभी पत्थर की चट्टानों के द्वारा जल रूकने के कारण, चट्टानों में छेद करके कुएं का निर्माण किया जाता था। इन कुओं का जल भी शुद्ध होता था।

    नलकूप: इस तरह के कुएँ में जलस्तर की गहराई को माप कर भूमि में छेद करके लोहे का पाइप डाला जाता है और जल को ऊपर खींचा जाता है। काफी गहराई तक खोदे जाने के कारण इनका जल भी षुद्व होता है।

    कुओं का गोल आकार एवं वैज्ञानिक परिपेक्ष्यः

    जब किसी भी तरल पदार्थ को संग्रहित किया जाता है तो उसके भीतर का दबाव उस वस्तु की दीवारों पर दबाव बनाता है। यदि कुओं को चौकोर बनाया जाएगा तो उसके भीतर एकत्रित जल का दबाव दीवारों के बजाय उसके चारों कोनों पर पहुंच जाएगा जिससे कुओं की दीवारों में दरारें आ जायेगी और कुओं की उम्र कम हो जाएगी। जबकि कुएं को गोल बनाने से उसमें दीवारें नहीं होंगी और जल भंडार का दबाव पूरे कुएं पर एक समान रूप से वितरित हो जाएगा। इसके कारण कुए की उम्र भी ज्यादा होगी। कुएं का पानी शुद्ध और आरोग्य प्रदान करने वाला होता है और इसमें आर्सेनिक की मात्रा नलकूलप के जल की तुलना में कम होती है।

    कुओं का पौराणिक महत्व एवं सामाजिक परम्पराएं

    कुएं का गांव के लिए कितना महत्व होता था इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया सकता है कि पुराने लोग सैकड़ों वर्ष पहले जब भी कभी कोई नई बस्ती या गांव बसाते थे तो सबसे पहले देखते थे कि आस पास जमीन में मीठा पीने योग्य पानी है कि नहीं। लोग पशुओं और अपने नहाने धोने के लिए एक तालाब या जोहड़ का निर्माण करते थे। यह कार्य मुख्य रूप से बंजारा जाति के लोग ही कार्य करते थे, जो कुएं, व जोहड़ बनाने में निपुण होते थे। हमारे पूर्वजों की ओर से बनाए गए ये कुएं, जोहड़ और तालाब उनकी दिनचर्या का अटूट हिस्सा होते थे। पूर्वजों की ओर से बनाए गए कुओं के चारों तरफ चबूतरा या बुर्जिया बनाई जाती थी, जो बाहर का गंदा पानी कुएं में जाने से रोकती थी। प्राचीन काल में कुएं के जन्म पर गीत गाने का चलन था। साथ ही कुएं (इनार) का विवाह धूमधाम से कराने के पश्चात ही इनके जल का सेवन किया जाता था।

    आज भी दिल्ली के आस-पास के कुछ गांव में श्रीकृष्ण के जन्म दिन पर कुओं का पूजन धूमधाम से किया जाता है और भगवान कृष्ण के बाल रूप की पूजा अर्चना की जाती है। जबकि हरियाणा के कुछ गांव में पुत्र होने पर कुआं पूजन का प्रचलन है। लेकिन षिक्षित सामाज ने इस सामाजिक कुरीति को दूर करते हुए पुत्रियों के जन्म पर भी कुएं का पूजन प्रारम्भ किया है (चित्र 6)। उत्तर प्रदेष के कुछ जनपदों में आज भी विवाह के षुभ अवसर पर कुआं पूजन का प्रचलन है जिसमें दूल्हे को कुएं के सात फेरें (परिक्रमा) लेने होते हैं। उपरोक्त प्रथाऐं कुएं के धार्मिक एवं सामाजिक महत्ता का प्रतीक है।

    कुंओं का वर्तमान स्वरूप

    कुआं हमारी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति का हिस्सा अवश्य रहा है। लेकिन वर्तमान परिवेश में ये कुएं हमारी ना समझी के कारण कूड़ेदान बनते जा रहे हैं। समय से साथ व्यवस्था की मार कुओं पर पड़ने लगी। 1950-60 के बाद गांवों में स्थित कुओं की देखभाल धीरे-धीरे कम होने लगी और नतीजा अब कुआं का अस्तित्व मिटता जा रहा है। पिछले चार दशक पहले तक ग्रामीण इलाकों में कुएं पानी का मुख्य श्रोत हुआ करते थे, कुए का पानी पीने के साथ-साथ सिंचाई का मुख्य स्रोत था। लेकिन पर्यावरण में हो रहे अवांछित बदलाव के कारण भूजल का गिरता हुआ स्तर कुएं के अस्तित्व पर संकट का प्रमाण है। गांवों में कई पुराने कुओं का पानी पूरी तरह से समाप्त हो चुका है, एवं कुछ कुओं का जल समाप्त होने के कगार पर है। बचे हुए कुओं की दशा भी वर्तमान समय में इस कदर खराब हो चुकी है कि तमाम कुएं अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं। आधुनिक युग में कुएं का महत्व केवल विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है। पहले जहां ये कुएं स्वच्छ जल का प्रतीक माने जाते थे। वहीं, आज जल के विभिन्न साधन होने के चलते कुएं के जल का महत्व नहीं रह गया है। देहात क्षेत्र में आज भी पुरानी पंरपरा को कायम रखते हुए दर्जनों कुएं मौजूद हैं। इनमें आज भी पानी तो है, लेकिन आजकल जल के अन्य साधन होने के कारण कुएं के पानी का उपयोग न के बराबर रह गया है। उपेक्षा के चलते कुछ कुएं पाट दिए गए हैं। कुओं की पर्याप्त देख भाल नहीं होने के कारण गंदगी से पटे कुओं का पानी समाप्ति की ओर है।

    कुओं के जीर्णोद्धार की आवष्यकता

    भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां पर फसल उगाने के लिए किसानों द्वारा कुल जल का 50ः भाग सिंचाई हेतु तथा अन्य कार्यों में प्रयोग किया जाता है। भूजल के अतिदोहन से भारत के कई राज्यों में जल के स्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई है, जिसके दूरगामी परिणाम हानिकारक होंगे। वर्तमान समस्या की गम्भीरता को देखते हुए विगत कुछ वर्षों में भूजल संरक्षण के लिए तालाबों की स्थिति में सुधार की प्रषासनिक स्तर पर पहल की जा चुकी है। इसके तहत मनरेगा से लेकर मत्स्य पालन के नाम पर गांवों में मौजूद तालाबों को दुरुस्त करने का कार्य प्रारंभ किया गया है। लेकिन कुआं सरकारी योजनाओं में आज भी उपेक्षित ही रह गए हैं। भविष्य में इस समस्या को दूर करने के लिए जल के संरक्षण की दिषा में सरकारी स्तर पर अब कई उल्लेखनीय पहल की गयी हैं। वित्तीय वर्ष 2019-20 में जल जीवन हरियाली योजना के तहत जिले में कुओं का जीर्णोद्धार कराया गया जिससे भूजल के संकट के खतरे को कम किया जा सके। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से एक उप-योजना ‘‘प्रधानमंत्री कुआं योजना 2022’’ की शुरुआत की गई है। प्रधानमंत्री कुआं योजना 2022 के माध्यम से किसानो को कुआं और तालाब का संयुक्त लाभ दिया जायेगा। स्थानीय नगर के अलग-अलग इलाकों में स्थित प्राचीन कुओं के जीर्णोद्धार के लिए नगरपालिका परिषद भी कार्ययोजनाएं तैयार कर रही है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा की गई पांचवीं छोटी सिंचाई जनगणना के अनुसार भूजल संरक्षण के लिए कुओं का जीर्णोद्धार व इनका संरक्षण अतिआवष्यक हैं।
    भूजल एवं कुओं के संरक्षण के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने कुओं को बचाने का बीड़ा उठाया है। इनमें से एक स्वयंसेवी संस्था ‘‘सुखेन्द्र कृषक कौषल विकास एवं पर्यावरण संरक्षण केन्द्र’’ फर्रूखाबाद जनपद के ग्राम दारापुर ने पुराने कुओं के संरक्षण व नये कुओं के बनाने में अग्रणी कदम उठाया है। इस क्रम में संस्था द्वारा गांव के सार्वजनिक उपयोग वाले चार कुएं चिन्हित किये गये हैं और ग्राम सभा के प्रबुद्धजनों द्वारा कुआं पूजन करके इन कुओं के जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है। प्रथम चरण में केन्द्र द्वारा फर्रूखाबाद जनपद के सार्वजनिक प्रयोग में आने वाले सौ कुओं को चिन्हित करके इनके जीर्णोद्धार का कार्य वर्ष 2022-2023 तक किया जाना सुनिष्चित किया गया है। वर्तमान समय में, भूजल के गिरते हुए स्तर की समस्या को देखते हुए, केन्द्र द्वारा लोगों को कुओं के महत्व के प्रति जागरूक करने व कुआं संरक्षण के लिए उठाये गये कदम एक सराहनीय पहल है।

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