गरमियाँ आते ही धूप की तल्खी तजे हो गयी। जलवायुपरिवतनि औि वैश्ववक गमी की गाँूज त्वचा पि चुभन पैदा कि िही है।
पानी की खपत बढ़ गयी है। पानी कम हो गया है। धूप ने भी तपन के ताप से पानी सोखना शुरू कि ददया है। यह पानी कहााँसे
उड़ेगाए कहााँ ककस रूप में ककतनी देि पड़ा िहेगाए कहााँ ककस रूप में वापस पथ्ृवी पि आयेगा औि कब ककस दहस्से को र्सचिंचत
किेगाए ककसी को नहीिं मालूम। हमे तो बस इतना पता है कक पथ्ृवी पि सूक्ष्म औि स्थूल दोनों तिह का जीवन पानी से ही शुरू
होता है औि पानी में ही समाप्त हो जाता । पानी के बबना जीवन की कल्पना ही नहीिं की जा सकती। पानी न हो तो पथ्ृवी भी
पत्थि की तिह बेजान हो जाएगी। इसका हिा.भिा जीवन्त पथ्ृवी तन्र बचगे ा ही नहीिं। तब हम भी नहीिं बचेंगे। किि भी हम पानी
को खुलेआम नष्ट कि िहे हैं। पानीए प्राणवायुऔि र्मट्टी की कीमत पि हो िहा यह ववकास हमािे र्लए उपयोगी नहीिं है। हमें यह
समझना होगा। हमािे पथ्ृवी तन्र की प्राकृततक व्यवस्था की कीमत पि हो िहा ववकास धािणीय नहीिं हो सकता। हमािे स्वास्थ्य
औि मानवीय सिंवेदना की कीमत पि हो िहा ववकास हमेशा प्रवनों के कठघिे में ही िहेगा। क्या अपनी जननी जैववक औि
प्राकृततक व्यवस्थाओिं के ख़िलाफ़ जाकि ववकास ककया जा सकता हैघ् उत्ति हैए नहीिं। अगि इस तिह के इकहिे ववकास की
व्यवस्था को हमािा पथ्ृवी तन्र स्वीकाि कि लेताए तो आज हम जलवायु परिवतनि औि युद्ध की ववर्भविका से नहीिं जूझ िहे
होते।
तो क्या युद्ध का भी इस बाजाि के श्न्ित ववकास तन्र के दशिन से कोई सम्बन्ध है। लोग हि समय ककसी न ककसी
युद्ध में सिंर्लप्त हैं। कभी दो देशों के बीचए कभी दो सिंस्कृततयों के बीचए कभी धमि औि जाततयों के बीच। औि किि यह युद्ध
परिवािोंए व्यश्क्तयों औि मश्स्तष्कों में घणृ ा औि दहिंसा का ववस्िोट किता िहता है। उससे उपजी बेतितीब औि ववनाशक ऊजाि
अमूल्य सिंसाधनों को क्षरित किती िहती है। युद्ध की इस प्रववृत्त ने हमें अपनी जननी पथ्ृवी औि इसकी प्रकृतत के ववरुद्ध भी
युद्धित कि िखा हैए औि वह भी ववज्ञान औि ववकास के नाम पि। यह ववकास तन्र जीवन के सबसे प्रमुख तत्व पानी के भी
ख़िलाफ़ खड़ा हो गया हैए औि हम इस श्स्थतत से तनकलने का उचचत उपाय नहीिं ढूाँढ़ पा िहे हैं।
ववचाि औि अनुभव जतनत ज्ञान ववज्ञान का उपयोग आददकाल से ही मनुष्य की तनिन्ति ववकर्सत हो िही सभ्यताओिं ने
अपनी.अपनी तिह से अपनी सुववधाओिं के र्लए ककया है। हााँलाकक प्राचीन सभ्यताओिं में पानी के प्रबिंधन की व्यवस्थाएाँ प्रामाख़णक
औि सवमि ान्य रूप से कुछ उत्खननों के अनुमान के आधाि पि ही उपलब्ध हैए यह माना जा सकता हैए कक उन समाजों में ज्ञान
ववज्ञान के ववकास में ष्ववशेिज्ञोंष् के साथ.साथ आम लोगों की भी आववयकता जतनत भागीदािी िही है। आधुतनक ववज्ञान पश्वचमी
देशों ववशेि रूप से यूिोप अमेरिका औि अन्य ववकर्सत औि ववकासशील देशों के ववशेिज्ञों औि बाजाि तन्र की आववयकताओिं के
अनुरूप ववपणन लायक तकनीकों के तनमािण औि उसके ववपणन के ववस्ताि में ही के श्न्ित होता जा िहा है । वह जनता को मार
उपभोक्ता के रूप में देखता है। इस कािण आज ज्ञान ववज्ञान के ववकास में आम जनता की भागीदािी दजि नहीिं हो पा िही है।
जनता तथा पथ्ृवी के प्राकृततक तन्र की भागीदािी के बबना कोई ववकास धािणीय नहीिं हो सकता। जनता मार उपभोक्ता बन कि
नहीिं िह सकती। उसके भीति की ऊजाि के औि प्राकृततक तन्र के तछन्न.र्भन्न होने से उपजी अिाजकता की ऊजाि अपनी
ववनाशकािी ताकत से इस ववकास के िल को भी तछन्न.र्भन्न कि देगी। जलवायु परिवतनि ए वैश्ववक गमीए अमूल्य प्राकृततक
सिंसाधनों का नष्ट होते जानाए जलए जमीनए वायु एविं खाद्य प्रदिूण तथा सबसे मनुष्य के समाजों औि लोगों के ददमागों की
भीतिी अिाजकता आधुतनक ववज्ञान औि बाजाि के श्न्ित अथितन्र के पथ्ृवी औि मनुष्य ख़िलाफ़ खड़े हो जाने का ही परिणाम हैं।
हमें ववज्ञानए तकनीकी औि बाजाि के गठजोड़ से उपजी इस अिाजकता को समझना होगा तथा ववज्ञान को जन भागीदािीए दशिन
औि कायि पद्धतत के रूप में स्वीकाि किना होगा। हमे पानी के पथ्ृवी तन्र को किि से पुनजीववत कि इसके सिंचालन में लोगों
की व्यापक भागीदािी तनधािरित किनी होगीए ताकक हमािा जीवन बचा िहे। पथ्ृवी की हरियाली बची िहे। पथ्ृवी की जैववकता बची
िहे। उसकी आददकाल से चली आ िही सनातन प्राकृततक व्यवस्था बची िहे। पानी औि ववकास का उचचत प्रबिंधन प्रकृतत औि
मनुष्य के सभी समाजों के समवेशी व्यवस्थाओिं के बबना सम्भव नहीिं है।
Tuesday, December 3
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