हर नये मुकाम पर बीते समय को ठहर कर देखने का मन करता हैंए और हम चैतन्य होकर विचार करें तो समझ सकते हैंए कि हमनें पिछली बार जैसा सोचा था और जो उम्मीदें की थीए उसमें क्या हो पाया और क्या नहीं हो सका घ् हमारे मनए हमारी राहेंए हमारे रिश्ते कितना जुड़े और कितना टूटे। हम अपने चुने रास्तो पर अपनी स्वयं की तय की हुई मंजिल की ओर कितना चल पाये और कहाँ.कहाँ अनेक आर्थिकए सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं के चलते या उलझनों को सुलझा न पाने से हमें उन रास्तों से विचलित होना पड़ा ।
पिछला वर्ष वैश्विक महामारी कोरोना के नाम रहा और पूरी दुनिया उसके खतरों और समाधान के उतार चढ़ाव मे उलझी रही। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न आर्थिक.सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्यों और स्वास्थ सुविधाओं तथा स्वास्थ ढाँचो के साथ अलग.अलग तरह की समस्याएँ तथा सफलताएँ सामने आयी । कुछ लोगोंए समाजों तथा सरकारों ने महामारी और मानवीय जमघटों का बेहतर प्रबंधन कियाए और कुछ ने खराब। कुव्यवस्थाए भ्रष्टाचारए कुप्रबंधन एवं मृत्यु की चर्चाओं के साथ सुव्यवस्थाए सुप्रबंधन एवं उपचार के दावे चलते रहे। कोरोना काल के पहले तथा दूसरे दौर के बाद अब तीसरा दौर भी आ गया। अब लगने लगा हैंए कि हमारे शरीर ने इस बेलगाम वायरस को भी धीरे धीरे अपने जैविक तन्त्र में साधना शुरू कर दिया हैं।
विशेषज्ञों के आकलन आने लगे हैंए कि कोरोना के घटक स्वरूप अब स्वतः कमजोर पड़ने लगेंगे और स्थितियाँ बेहतर होनी शुरू हो जाएँगी। दुनिया भर के लोग अनेक प्रतिकूलताओं की तरह ही कोरोना के साथ जीना भी सीख लेगें। उम्मीद करें कि 2022 मे लोगों की यात्राएंए समारोहए गोष्ठियांए उद्योग सब फिर से शुरू हो जाएंगे और चेहरों से मास्क हटने से लोग थोड़ा अधिक जाने.पहचाने नजर आयेंगे।
‘कहार’ पत्रिका के सात वर्षों के आनलाइन तथा प्रिन्ट कपियों के सफल प्रकाशनों के बाद हमने पिछले वर्ष तय किया था, कि अब इसे आनलाइन ही प्रकाशित किया जाय। ‘बचपन क्रिएशन्स’ के साथ आने के बाद आनलाइन वितरण तथा विपणन के बेहतर प्रबंध की उम्मीदें बनी। हमें संतोष हैं कि इस कोरोना काल मे भी हम पत्रिका का सुचारु रूप से प्रकाशन कर पाये और हमारे लेखकों, पाठको, सम्पादकीय एवं प्रोडक्शन टीम का उत्साह बना रहा। पाठकों से हमारा सम्पर्क नहीं हो पा रहा है, इसलिए उनकी भागीदारी का अन्दाजा अभी नहीं लग पा रहा है।
‘कहार’ के ये आठ वर्ष हमारे लिए अनेक तरह के प्रयोगों एवं नवाचारों के वर्ष रहें। अपने विमर्शों और अनुभवो की साझी सीख से हमने लगातार इसे समृद्ध किया। कुछ नयें पाठक, लेखक, सम्पादक एवं प्रबंधक जोड़ते रहें। कुछ साथी कोरोना संक्रमण, बढ़ती उम्र या अन्य कारणों से इस यात्रा से अलग भी हुए । यह एक प्राकृतिक चक्र हैं। कुछ जाते हैं, तो ही नए लोगो के लिए जगह बनती है। इस वर्ष से ‘कहार’ मे एक नई ऊर्जावान संपादक डा० मधु भारद्वाज शामिल हुई हैं। हम उसका स्वागत करते हैं इसके प्रकाशन एवं सोशल मीडिया प्रबंधन एवं सहयोग के लिए दो और युवा साथी डा० राजेश बाजपेयी एवं कृष्णानंद सिंह इस वर्ष से ‘कहार’ टीम का हिस्सा बन रहे हैं। स्वागत ।
हाल ही प्रोफेसर एच.एस. श्रीवास्तव फाउण्डेशन ने ग्रामीण विकास एवं पर्यावरण प्रबंधन को समर्पित अपना नया शोध और विकास केंद्र शुरू किया हैं, और हमने विभिन्न क्षेत्रों मे कुछ गाँवो को अपने अध्ययन तथा विकास के लिए चुना है। पत्रिका के कुछ पृष्ठों को हम इस वर्ष से अपने इन्हीं प्रयासों और प्रभावों पर केंद्रित करना चाहते हैं। कहार से चुनी हुई कुछ दीर्घकालीन उपयोग के आलेखों एवं सामग्री का एक वार्षिक अंक प्रिन्ट कापी मे प्रकाशित करने की भी योजना बन रही है। उम्मीद हैं, इन सभी प्रयासों में आपका सहयोग मिलता रहेगा।
गाँवो का विकास भारतीय परिदृश्य मे विकास की कड़ी में एक छूटी हुई राह है। देश की स्वतंत्रता के पहले की बात छोड़ दें, तो स्वतंत्र भारत के अनेकों प्रयास, योजनाएं और ढांचे गाँवो के विकास को प्रभावी दिशा नहीं दे पाये। गाँवों को अच्छी सड़कें, अच्छा पोषण, अच्छा संचार नेटवर्क, अच्छे स्कूल-कॉलेज, स्वास्थ्य के ढाँचे तथा सम्मानजनक रोजगार जनित अर्थव्यवस्था नहीं मिल पायी। पंचायती राज लागू होनें के बाद जिस तरह के ग्रामीण विकास और व्यापक भागीदारी की अपेक्षा की गयी थी, वह भी नहीं हो पायी। औरतों, बच्चों, बुजुर्गों की बहुतायत संख्या अब भी कुपोषण की शिकार हैं। भारतीय गाँवों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ थोड़ी बेहतर हुई हैं, परन्तु पर्यावरणीय और सांस्कृतिक स्थितियाँ लगातार गिरती जा रही हैं। पानी कम होता जा रहा है, और प्रदूषित भी। मिट्टी की उर्वरता घट रही हैं, और जमीन तथा फसलों की जैव विविधता भी। खेती में जहरीले रसायनों एवं खादों के अन्धाधुंध प्रयोग ने कृषि की लागत तो बढ़ाई है, परन्तु न तो उपज की निश्चितता बढ़ी है, न किसानों एवं कृषि मजदूरों की आय। परन्तु मिट्टी, पानी, हवा और खाद्य पदार्थों की विषाक्तता बढ़ी है। स्वास्थ्य सेवाएँ अधिक नहीं सुधार पायी हैं। परन्तु आबादी और बीमारियाँ बढ़ीं हैं। रासायनिक कृषि के अदान केन्द्रीकृत कारखानों में उत्पादित होते हैं, इसलिए स्थानीय उद्योग धन्धे गाँवों और कस्बों से लगातार गायब होते जा रहे हैं, और ग्रामीण युवा बड़े शहरों में काम धन्धे की तलाश में लगातार विस्थापित हो रहे हैं, जहाँ न तो उनका रोजगार स्थायी हो पाता न ही जीवन स्तर सुधर पाता। सरकारों के प्रयास योजनाओं से जमीन पर कम ही उतर पाते। योजनाओं के कार्यान्वयन और प्रभाव आकलन की समुचित व्यवस्थाओं और उचित जवाबदेही का न होना सम्भवतः इसका प्रमुख कारण हैं।
भारतीय गाँवों मे अब भी एक बड़ी आबादी बसती हैं। शहरों की आपाधापी और प्रदूषण से आतंकित होकर तथा घर से आनलाइन काम करने की सहूलियतों को देखते हुए बड़ी संख्या में शिक्षित युवा और बुजुर्ग लोग गाँवों मे बसना चाहते हैं। इसके लिए गाँवों मे सड़कें, अस्पताल, ऊर्जा के साधन, ऑनलाइन नेटवर्क, स्कूल और स्वच्छ वातावरण खड़ा करना होगा। सांस्कृतिक रूप से सामूहिकता और सरलता को लोगों के जीवन में वापस लाना होगा। छोटे बड़े हरित उद्योगों, शिक्षा और सेवाओं की श्रृंखला कायम करनी होगी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा वैज्ञानिक कार्यपद्धति तथा नवाचारी तकनीकों तथा तकनीकी साधनों से लोगों का जीवन समृद्ध करना होगा। हमारा नया शोध केन्द्र इसी पहल को आगे बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प है।