भारत में अधिकांश हिस्सों में पपीते की खेती होती है। इस फल को कच्चा और पकाकर, दोनों तरीके से उपयोग में लाया जाता है। इस फल में विटामिन ए की मात्रा अच्छी पाई जाती है, वहीं पर्याप्त मात्रा में इसमें पानी भी होता है, जो त्वचा को नम बनाए रखने में सहायक है। अगर इसकी उन्नत तरीके से खेती की जाए तो कम लागत पर अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। इतना ही नहीं, इसकी खेती के साथ इसकी अंतःवर्तीय फसलों को भी बोया जा सकता है, जिनमें दलहनी फसल जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रेंचबीन व सोयाबीन आदि हैं। अब इसकी खेती पूरे भारत में की जाने लगी है। सालों-साल आसनी से मिलने वाला पपीता बहुत ही फायदेमंद फल है और आज के समय में पपीता ज्यादातर लोगों की पसंद भी है क्योंकि यह ऐसा गुणकारी फल है जो पेट की अनेक समस्याओं को दूर करता है। इस की खेती करना भी आसान है। कम समय में अच्छा-खासा मुनाफा देने वाली फसल हैं। शौकिया तौर पर लोग सालों-साल अपने घर के बगीचे में भी लगाते आए हैं या खाली पड़ी आस-पास की जगह पर इस को उगा कर फायदा लेते रहे हैं।
आज के दौर में अनेक किसान पपीते की खेती कर के अपने आप को प्रगतिशील किसानों की दौड़ में शामिल कर चुके हैं क्योंकि इसे उगाना आसान, बेचना आसान और मुनाफा ज्यादा है। सघन बागबानी पपीता उत्पादकों के लिए एक नई विधि है, जिसे अपना कर वे उत्पादकता और अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं। इस विधि का इस्तेमाल पपीता उत्पादकों द्वारा किया जाने लगा है, लेकिन अभी भी अनेक पपीता उगाने वाले किसान इस विधि से अनजान हैं। सघन बागबानी तकनीक में पौधो की प्रति इकाई संख्या बढ़ा कर जमीन का ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जाता है जिस से अधिक पैदावार ली जा सके। पपीते की कुछ किस्मों के पौधे बौने होते हैं, जो सघन बागबानी के लिए उत्तम हैं। दिन प्रतिदिन खेती की जोत कम होती जा रही है। ऐसे में पपीते की सघन बागबानी पैदावार बढ़ाने के लिए एक खास तरीका है। पपीते का इस्तेमाल कच्चे व पके फल के रूप में किया जाता है। इस के अलावा इस से मिलने वाला पपेन का भी इस्तेमाल अनेक औद्योगिक कामों में किया जाता है। खेत में यदि श्ड्रिप इरिगेशनश् यानी बूंदबूंद सिंचाई की विधि से पानी दिया जाता है तो इस से पानी सीधे पौधे की जड़ों में जाता है और बर्बाद नहीं होता। इस पद्धति से खेती करने पर सरकार आम किसानों को 50 फीसदी अनुदान और एसटी और एससी, लघु, सीमांत और महिला किसानों को 50 फीसदी अनुदान देती है। यदि हम सामान्य विधि से पुरे खेत में पानी देते हैंए तो पानी की मात्र ज्यादा लगाती हैं परन्तु वही हम यदि बूंद.बूंद सिचाई से सिर्फ पौधो के जड़ो में पानी देते हैं तो इस विधि से हम तक़रीबन 85 फीसदी पानी की बचत कर सकते हैं
पपीता में अनेक कीट एवं रोगों का प्रकोप होता हैए लेकिन पपीते के बागों में कीटों की अपेक्षाए रोगों से हानी अधिक होती हैद्य हमारे देश में पपीते की फसलो मुख्यतः विषाणु रोग, फफूंदी जनित रोग और फलों के फफूंदी जनित रोग वर्ग के रोग आर्थिक स्तर से अधिक हानी पहुंचाते हैंद्य कीट पपीते को बहुत कम हानी पहुंचाते है, परन्तु माहूँ, सफेद मक्खी और लाला मकड़ी नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख कीट है।
यदि कृषक बन्धु पपीते की बागवानी से अधिकतम उत्पादन लेना चाहते है, तो समय रहते इन सबकी रोकथाम आवश्यक हैंद्य
इस लेख में बागवान बन्धुओं के लिए पपीते के प्रमुख कीट एवं रोग उनके लक्षण और रोकथाम की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
पपीते की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
इसकी खेती गर्म नमी युक्त जलवायु में की जा सकती है। इसे अधिकतम 38 से 44 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर उगाया जा सकता है। इसके साथ ही न्यूनतम 5 डिग्री सेल्सियस से तापमान कम नहीं होना चाहिए। पपीते को लू और पाले से भी बहुत नुकसान होता है।
पपीते की खेती का उचित समय
इसकी खेती साल के बारहों महीने की जा सकती हैए लेकिन फरवरी, मार्च व अक्टूबर के मध्य का समय उपयुक्त माना जाता है। इन महीनों में उगाए गए पपीते की बढ़वार काफी अच्छी होती है.
पपीते की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी
पपीता बहुत ही जल्दी बढऩे वाला पेड़ है, इसलिए इसे साधारण ज़मीन, थोड़ी गर्मी और अच्छी धूप मिलना अच्छा होता है। इसकी खेती के लिए 6.5-7.5 पी.एच मान वाली हल्की दोमट या दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है, जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो।
पपीते की कुछ उन्नत किस्में
- पूसा डेलीसियस
- पूसा ड्वार्फ
- कोयंबटूर 3
- कोयंबटूर 6
- कोयंबटूर 7
- अर्का प्रभात
- सूर्या
- रैड लेडी
पपीते की फसल में विषाणु रोग प्रबंधन
बागवानी में अधिक लाभ की दृष्टि से पपीते की फसल अति लाभकारी है किंतु पपीते की फसल में विषाणु एक प्रमुख समस्या है जिसके जानकारी के अभाव में किसानों को बहुत आर्थिक क्षति उठाना पड़ता है यदि समय रहते इनका प्रबंधन न किया गया तो किसान भाइयों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
रिंग स्पॉट वायरस –
इस रोग का कारण विषाणु है जो कि माहू द्वारा फैलता है जिसके कारण पौधे की वृद्धि रुक जाती है पत्ती कटी फटी हो जाती है एवं हर गाठ पर कटे-फटे पत्ते निकलते हैं। पत्ती, तनो एवं फलों पर गोलाकार धब्बे बन जाते हैंए जिसके परिणामस्वरूप फल एवं पौध वृद्धि प्रभावित होती हद्यै इस रोग के गंभीर आक्रमण की स्थिति में 50-60 प्रतिशत तक हानि हो जाती है।
नियंत्रण
1) बागों में साफ सफाई रखें
2) शाम को खेत में धुआं करें
3) रोग ग्रस्त पौधे को उखाड़ कर जला दें
4) पपीते के बगीचे के आसपास कद्दू वर्गीय कुल के पौधे नहीं होने चाहिए
5) नीम सीड कर्नल अर्क या नीम के तेल का प्रयोग 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहें
6) माहू के नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट दवा 0.1þ प्रयोग करें
7) वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद बाग लगाने पर यह रोग कम दिखाई देता है
लीफकर्ल विषाणु रोग –
यह भी विषाणु जनित रोग है जो कि सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है जिस कारण पत्तियाँ मुड़ जाती है इस रोग से 70-80 प्रतिषत तक नुकसान हो जाता है।
नियंत्रण रू
1) स्वस्थ पौधो का रोपण करें
2) शाम को खेत के आसपास धुआं करें
3) रोगी पौधों को उखाड़कर खेत से दूर गढढे में दबाकर नष्ट करें
4) सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु 0.2 þ नीम का तेल 5-7 दिन के अंतराल पर या इमिडाक्लोपरिड
कीटनाशक 0.1þ का प्रयोग करें।
5) फसल रोपण से पूर्व अधिक जानकारी हेतु कृषि विज्ञान केंद्र हस्तिनापुर, मेरठ से संपर्क करें
मात्रारू
पाउडरी मिल्ड्यू रोग की रोकथाम के लिए हेक्सास्टॉप की 300 ग्राम/एकड़ मात्रा उपयुक्त रहती है.
पपीते का वलय-चित्तीरू
पपीते के वलय-चित्ती रोग को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे कि पपीते की मोजेक, विकृति मोजेक, वलय-चित्ती (पपाया रिंग स्पॉट) पत्तियों का संकरा व पतला होना, पर्ण कुंचन तथा विकृति पर्ण आदि। पौधों में यह रोग उसकी किसी भी अवस्था पर लग सकता है, परन्तु एक वर्ष पुराने पौधे पर रोग लगने की अधिक संभावना रहती है। रोग के लक्षण सबसे ऊपर की मुलायम पत्तियों पर दिखायी देते हैं। रोगी पत्तियाँ चितकबरी एवं आकार में छोटी हो जाती हैं। पत्तियों की सतह खुरदरी हो जाती हएै तथा इन पर गहरे हरे रंग के फफोले बन जाते हैं। पर्णवृत छोटा हो जाता है तथा पेड़ के ऊपर की पत्तियाँ खड़ी होती हैं। पत्तियों का आकार अक्सर प्रतान (टेन्ड्रिल) के अनुरूप हो जाता है। पौधों में नयी निकलने वाली पत्तियों पर पीला मोजेक तथा गहरे हरे रंग के क्षेत्र बनते हैं। ऐसी पतियाँ नीचे की तरफ ऐंठ जाती हैं तथा उनका आकार धागे के समान हो जाता है। पर्णवृत एवं तनों पर गहरे रंग के धब्बे और लम्बी धारियाँ दिखायी देती हैं। फलों पर गोल जलीय धब्बे बनते हैं। ये धब्बे फल पकने के समय भूरे रंग के हो जाते है। इन रोग के कारण रोगी पौधों में लैटेक्स तथा शर्करा की मात्रा स्वस्थ्य पौधों की अपेक्षा काफी कम हो जाती है ।
रोग के कारणरू
यह रोग एक विषाणु द्वारा होता है जिसे पपीते का वलय चित्ती विषाणु कहते हैं। यह विषाणु पपीते के पौधों तथा अन्य पौधों पर उत्तरजीवी बना रहता है। रोगी पौधों से स्वस्थ्य पौधों पर विषाणु का संचरण रोगवाहक कीटों द्वारा होता है जिनमें से ऐफिस गोसिपाई और माइजस पर्सिकी रोगवाहक का काम करती है। इसके अलावा रोग का फैलाव, अमरबेल तथा पक्षियों द्वारा होता है ।
पर्ण-कुंचनरू
पर्ण-कुंचन (लीफ कर्ल) रोग के लक्षण केवल पत्तियों पर दिखायी पड़ते हैं। रोगी पत्तियाँ छोटी एवं क्षुर्रीदार हो जाती हैं। पत्तियों का विकृत होना एवं इनकी शिराओं का रंग पीला पड़ जाना रोग के सामान्य लक्षण हैं। रोगी पत्तियाँ नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं और फलस्वरूप ये उल्टे प्याले के अनुरूप दिखायी पड़ती हैं। यह पर्ण कुंचन रोग का विशेष लक्षण है। पत्तियाँ मोटी, भंगुर और ऊपरी सतह पर अतिवृद्धि के कारण खुरदरी हो जाती हैं। रोगी पौधों में फूल कम आते हैं। रोग की तीव्रता में पत्तियाँ गिर जाती हैं और पौधे की बढ़वार रूक जाती है।
रोग के कारणरू
यह रोग पपीता पर्ण कुंचन विषाणु के कारण होता है। पपीते के पेड़ स्वभावतः बहुवर्षी होते हैं, अतः इस रोग के विषाणु इन पर सरलता पूर्वक उत्तरजीवी बने रहते हैं। बगीचों में इस रोग का फैलाव रोगवाहक सफेद मक्खी बेमिसिया टैबेकाई के द्वारा होता है। यह मक्खी रोगी पत्तियों से रस-शोषण करते समय विषाणुओं को भी प्राप्त कर लेती है और स्वस्थ्य पत्तियों से रस-शोषण करते समय उनमें विषाणुओं को संचरित कर देती है।
मंद मोजेकरू
इस रोग का विशिष्ट लक्षण पत्तियों का हरित कर्बुरण है, जिसमें पत्तियाँ विकृत वलय चित्ती रोग की भांति विकृत नहीं होती है। इस रोग के शेष लक्षण पपीते के वलय चित्ती रोग के लक्षण से काफी मिलते जुलते हैं। यह रोग पपीता मोजेक विषाणु द्वारा होता है। यह विषाणु रस-संचरणशील है। यह विषाणु भी विकृति वलय चित्ती विषाणु की भांति ही पेड़ तथा अन्य परपोषियों पर उत्तरजीवी बना रहता है । रोग का फैलाव रोगवाहक कीट माहूं द्वारा होता है।
रोग प्रबंध
ऽ विषाणु जनित रोगों की रोग प्रबंध संबधित समुचित जानकारी अभी तक ज्ञात नहीं हो पायी है । अतः निम्नलिखित उपायों को अपनाकर रोग की तीव्रता को कम किया जा सकता हैः
ऽ बागों की सफाई रखनी चाहिए तथा रोगी पौधे के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए ।
ऽ नये बाग लगाने के लिए स्वस्थ्य तथा रोगरहित पौधे को चुनना चाहिए।
ऽ रोगग्रस्त पौधे किसी भी उपचार से स्वस्थ्य नहीं हो सकते हैं। अतः इनको उखाड़कर जला देना चाहिए, अन्यथा ये विषाणु का एक स्थायी स्रोत हमेशा ही बने रहते हैं और साथ-साथ अन्य पौधों पर रोग का प्रसार भी होता रहता है।
ऽ रोगवाहक कीटों की रोकथाम के लिए कीटनाशी दवा ऑक्सीमेथिल ओ. डिमेटान (मेटासिस्टॉक्स) 0.2 प्रतिशत घोल 10-12 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए ।
पपीते के कवक जनित रोग
आद्र गलन (डैंपिंग ऑफ): यह पौधशाला में लगने वाला गंभीर रोग है जिससे काफी हानि होती है इसका कारक कवक पीथियम एफैनिडरमेटम है जिसका प्रभाव नये अंकुरित पौधों पर होता है इस रोग में पौधे का तना प्रारंभिक अवस्था में ही गल जाता है और पौधा मुरझा कर गिर जाता है
नियंत्रण के उपायः
ऽ पौधशाला में जल निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए एवं इसके लिए पौधशाला की ऊंचाई आसपास की सतह से ऊपर होनी चाहिए जिससे जल जमाव ना हो।
ऽ नर्सरी की मिट्टी का उपचार फॉर्मेल्डिहाइड के 2.5þ घोल से करने के बाद 48 घंटे तक पॉलीथिन शीट से ढक देना चाहिए।
ऽ बीज उपचार कार्बेंडाजिम अथवा मेटैलेक्सिल मैनकोज़ेब के मिश्रण से 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें पौधशाला में लक्षण दिखते ही मेटैलेक्सिल मैनकोज़ेब के मिश्रण का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी से छिड़काव करें।
तना तथा जड़ सड़न रोग (कॉलर रॉट)रू
पपीते में तना व जड़ गलन यानी कॉलर रॉट रोग में तने के निचले भाग के छाल पर जलीय चकत्ते बनते हैं जो बाद में बढ़कर तनो के चारों तरफ से घेर लेते हैं ऊपरी पत्तियां पीली हो जाती हैं और पत्तियां गिर जाती है रोगी पौधे में फल नहीं बनते हैं और यदि बन जाते हैं तो गिर पड़ते हैं तने के आधार पर जाने के कारण पूरा पौधा टूट कर गिर जाता है।
नियंत्रण के उपायः
ऽ बगीचे में जल निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए।
ऽ रोगी पौधों को जड़ सहित उखाड़ कर जला देना चाहिए और रोगी पौधे के स्थान पर दूसरे नए पौधे नहीं लगाने चाहिए।
ऽ जून जुलाई और अगस्त के महीने में पौधों पर आधार से 50 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक बोर्डो मिश्रण लगाने से रोग से बचा जा सकता है।
ऽ यदि तने में धब्बे दिखाई देते हैं तो मेटैलेक्सिल मैनकोज़ेब का घोल बनाकर दो ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से पौधे के तने के पास मिट्टी में छिड़काव करना चाहिए।
फल सड़न रोगरू
यह पपीते के फल का मुख्य रोग है इससे कई कवक कारक हैं जिसमें कोलेटोट्रिकम गलियोस्पोरयडस प्रमुख हैं अधपके एवं पके फल रोगी होते हैं इस रोग में फलों के ऊपर छोटे गोल गीले धब्बे बनते हैं बाद में यह बढ़कर आपस में मिल जाते हैं तथा इनका रंग भूरा या काला हो जाता है यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है जिसके कारण फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं
नियंत्रण के उपायः
ऽ कॉपर ऑक्सिक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में या मैनकोज़ेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से रोग में कमी आती है।
ऽ बगीचे में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए।
ऽ रोगी पौधों को जड़ से उखाड़ कर जला देना चाहिए और दूसरे नए पौधे नहीं लगाने चाहिए।
फफूंदी जनित रोगरू
तना या पाद विगलनरू
पपीते के इस रोग के सर्वप्रथम लक्षण भूमि सतह के पास के पौधे के तने पर जलीय दाग या चकते के रूप में प्रकट होते हैं। अनुकूल मौसम में ये जलीय दाग (चकते) आकार में बढ़कर तने के चारों ओर मेखला सी बना देते हैं। रोगी पौधे के ऊपर की पत्तियाँ मुरझा जाती हैं तथा उनका रंग पीला पड़ जाता है और ऐसी पत्तियाँ समय से पूर्व ही मर कर गिर जाती हैं। रोगी पौधों में फल नहीं लगते हैं यदि भाग्यवश फल बन भी गये तो पकने से पहले ही गिर जाते हैं। तने का रोगी स्थान कमजोर पड़ जाने के कारण पूरा पेड़ आधार से ही टूटकर गिर जाता है और ऐसे पौधों की अंत में मृत्यु हो जाती है। तना विगलन सामान्यतः दो से तीन वर्ष के पुराने पेड़ों में अधिक होता है। नये पौधे भी इस रोग से ग्रस्त होकर मर जाते हैं। पपीते की पैौधशाला में आर्द्रपतन (डेपिंग ऑफ) के लक्षण उत्पन्न होते हैं।
रोग के कारणरू
यह रोग पिथियम की अनेक जातियों द्वारा होते हैं जिनमें से पिथियम अफेनीडमेंटम तथा पिथियम डिबेरीएनम मुख्य है। इसके अलावा अन्य कवक राइजोक्टोनिया सोलेनाई भी यह रोग पैदा करते हैं। ये सभी कवक मुख्य रूप से मिट्टी में ही पाये जाते हैं।
रोग प्रबंधरू
ऽ पपीते के बगीचों में जल-निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए जिससे बगीचे में पानी अधिक समय तक न रूका रहे ।
ऽ रोगी पौधों को शीघ्र ही जड़ सहित उखाड़ कर जला देना चाहिए। ऐसा करने से रोग के प्रसार में कमी आती है। इसलिए जहाँ से पौधे उखाड़े गये हों, उसी स्थान पर दूसरी पौध कदापि न लगाएं।
ऽ आधार से 60 सें.मी. की ऊँचाई तक तनों पर बोडों पेस्ट (1ः13) लगा देना चाहिए।
ऽ भूमि सतह के पास तने के चारों तरफ बोडों मिश्रण (6ः6ः50) या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत), टाप्सीन-एम (0.1 प्रतिशत), का छिङ्काव कम से कम तीन बार जून-जुलाई और अगस्त के मास में करना श्रेष्ठ रहता है ।
आर्द्रपतन रोग रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपायों को अपनाना चाहिए
ऽ पौधशाला की क्यारी भूमि सतह से कुछ ऊपर उठी हुई होनी चाहिए। मृदा हल्की बलुई वाली होनी चाहिए। यदि मृदा कुछ भारी हो तो उसमें बालू या लकड़ी का बुरादा मिला देना चाहिए।जल-निकासी का उचित प्रबंध हो जिससे कि पौधशाला में अधिक देर तक पानी जमा न हो सके।
ऽ बीज की बोआई घनी नहीं करनी चाहिए।
ऽ पौधशाला की मृदा का उपचार निम्नलिखित विधियों से करना चाहिए
ऽ थायरैम या कैप्टॉन 3 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से पौधशाला की मिट्टी में मिला देना चाहिए ।
ऽ एक भाग फार्मलीन में पचास भाग पानी मिलाकर बने घोल को पौधशाला की क्यारी में छिड़ककर मृदा को खूब अच्छी तरह भिगोएं तथा पॉलिथीन से ढक कर एक सप्ताह के लिए छोड़ देना चाहिए। यह कार्य बोआई के एक सप्ताह पूर्व करना चाहिए।मृदा का उपचार सौर ऊर्जा द्वारा किया जाता है। इस विधि से गर्मी के दिनों में सफेद पारदर्शी पॉलीथीन की मोटी (लगभग 200 गेज) चादर को मिट्टी की सतह पर बिछाकर लगभग 45-60 दिनों के लिए ढ़क दिया जाता है। ढकने के पूर्व यदि मृदा में नमी की कमी हो, तो हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे सौर ऊर्जा का विकिरण अधिक प्रभावकारी ढंग से हो सके। यह कार्य अप्रैल से जून के मध्य करना चाहिए। इस क्रिया में भूमि में उपस्थित सभी प्रकार के सूक्ष्मजीवों का नाश हो जाता है। साथ ही साथ घास-फूस भी जलकर नष्ट हो जाते हैं।
ऽ बीज को बोते समय किसी कवकनाशी दवा से उपचारित कर लेना चाहिए। इसके लिए कैप्टॉन, थायरैम 2.5 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाकर उपचारित करें।
ऽ पौध जमने के बाद थायरैम या कैप्टॉन 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर पैोधशाला की क्यारियों में डालने से पौध गलन की रोकथाम हो जाती है।
ऽ सिंचाई हल्की और आवश्यकतानुसार करनी चाहिए।
पर्ण चित्तीरू
पपीते पर विभिन्न प्रकार के पर्ण रोग आते हैं । अनुकूल वातावरण मिलने पर इन रोगों से पपीते के फलों की काफी हानि होती है ।
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्तीरू
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती (लीफ स्पॉट) के लक्षण पत्ती व फलों पर दिखायी देते हैं। दिसम्बर-जनवरी के महीनोें में पत्तियों पर अनियमित आकार के हल्के भूरे रंग के दाग उत्पन्न होते है। दाग का मध्य भाग धूसर होता है। रोगी पत्तियाँ पीली पड़कर गिर जाती है। प्रारंभ में फलों पर सूक्ष्म आकार के भूरे से काले रंग के दाग बनते हैं जो धीरे-धीरे बढ़कर लगभग 3 मि.मी. व्यास के हो जाते हैं । ये दाग फलों के ऊपरी सतह पर, जो थोड़ा सा उठा हुआ होता है जिसके नीचे के ऊतक फटे होते हैं जिससे फल खराब हो जाता है और फल बाजार के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। पकते हुए फलों पर रोग के लक्षण काफी स्पष्ट हो जाते हैं।
रोग के कारणरू
यह रोग सर्कोस्पोरा पपायी नामक कवक से होता है। यह कवक पौधों पर लगे पत्तियों के रोगी स्थानों पर उत्तरजीवी बना रहता है। रोग विकास के लिए 20 से 27 डिग्री सेल्सियस तापमान व पत्तियों पर उपस्थित ओस या वर्षा का पानी अनुकूल होता है। रोग का फैलाव कीट व हवा द्वारा होता है।
रोग प्रबंधनरू
रोगी पौधों के गिरे अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। कवकनाशी दवा जैसे, टाप्सीन एम 0.1 प्रतिशत, मैंकोजेब, 0.2 से 0.25 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। यह छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर दुहरा देना चाहिए।
हेल्मिन्थोस्पोरियम पर्ण-चित्तीरू
इस रोग के लक्षण पत्तियों पर छोटे जलीय, पीताभ-भूरे रंग के धब्बों के रूप में उत्पन्न होते हैं। पुराने धब्बों का मध्य भाग धूसर होता है। रोग की तीव्रता में पर्णवृंत मुलायम होकर ढीला पड़ जाता है। रोगी पत्तियाँ नीचे गिर जाती है। इस प्रकार के लक्षण हेल्मिन्थोस्पोरियम रोस्ट्रेटम नामक कवक से होते है। इस रोग का शेष प्रबंध सर्कोस्पोरा पर्ण-चित्ती (लीफ स्पॉट) रोग के समान है।
श्यामवर्णरू
सामान्य रूप से इस रोग के लक्षण अधपके या पकते हुए फलों पर दिखायी पड़ते हैं। प्रारंभ में छोटे, गोल,जलीय तथा कुछ धंसे हुए धब्बों के रूप में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पकते हुए फलों की तुड़ाई बराबर होती रहती है, जिससे पेड़ पर लगे फल पर बने धब्बों का आकार लगभग 2 सें. मी. तक होता है। फल पकने के साथ-साथ इन धब्बों का आकार भी बढ़ता जाता है और कुछ समय बाद ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं जिससे इनका आकार अनियमित हो जाता है। धब्बों के किनारे का रंग गहरा होता है और बीच का हिस्सा भूरा या काला होता है। अनुकूल वातावरण मिलने पर धब्बे के बीच में कवक की बढ़वार हल्की गुलाबी या नारंगी होती है जिसमें कवक के एसरवुलस बने होते है। धीरे-धीरे ये धब्बे फैलकर पूरे फल या उसके अधिकांश भाग पर फैल जाते हैं। रोग की तीव्र अवस्था में रोगी फल सड़ने लगते हैं। रोगी फलों में ऐमीनो अम्ल की मात्रा में कमी हो जाती है जिससे पपेन की उपलब्धि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। फलों का मीठापन भी कम हो जाता है।
श्यामवर्ण रोग (एन्थैकनोज) के लक्षण पर्णवृत एवं तने पर भी दिखायी देते हैं। पेड़ के इन भागों पर भूरे रंग के लम्बे धब्बे बनते हैं। रोगी स्थानों पर कवक एसरवुलस दिखायी पड़ते हैं। रोगी पत्तियाँ गिर कर नष्ट हो जाती हैं।
रोग के कारणरू
यह रोग कवक कोलेटोट्राइकंम ग्लोओस्पोरीआइडीज के कारण होता है। यह कवक रोगी पेड़ों पर उत्तरजीवी बना रहता है। नम मौसम, रोग विकास के लिए अनुकूल होता है। फल का सड़न ३० डिग्री सेल्सियस तापमान पर अधिक होता है। रोग का फैलाव हवा एवं कीटों द्वारा होता है।
रोग प्रबंधरू
रोगी पत्तियों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। कवकनाशी दवा का छिड़काव समयानुसार करना चाहिए। मैंकोजेब, 0.2 प्रतिशत, काबॅन्डाजिम, 0.1 प्रतिशत, डैकोनिल 0.2 प्रतिशत या बोडों मिश्रण (2ः2ः 50) कॉपर ऑक्सीक्लोराइडए 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।पहला छिड़काव फल लगने के एक मास बाद करना चाहिए तथा उसके बाद 15 से 20 दिन के अंतर पर कुल 5-6 छिड़काव करना चाहिए।
पपीते की प्राप्त उपजरू
पपीते की उन्नत किस्मों से प्रति पौधे 35 से 50 किलोग्राम उपज मिल जाती है. पपीते का एक स्वस्थ पेड़ एक सीजन में करीब 40 किलो तक फल देता है।
एन्ट्रेक्नोज- आरम्भ में पत्तियों पर छोटे स्पष्ट धब्बे उत्पन्न होते हैं। धब्बे माप में बढ़ते हैं तथा पास-पास के धब्बे आपस में जुड़ कर संपूर्ण पर्णक को ढक लेते हैं। पूर्णरूप से विकसित धब्बों के चारों तरफ पीला प्रभामण्डल बना होता है। धब्बे के केन्द्र के ऊत्तक असामान्य रूप से पतले और सफेद कागजनुमा होते हैं। पुराने धब्बे के मध्य में ऊत्तकक्षय होता है और वे फट जाते हैं तथा बीच में एक छिद्र बनाते हैं।
गम्भीर रूप से प्रभावित पत्ती में बहुत से छिद्र दिखाई देते हैं। संक्रमण की वृद्धि की अवस्था मंद पत्ती पीली पड़ कर झुलसी सी दिखाई देती है। पत्ती से संक्रमण बढ़ कर पर्णवृन्त पर पहुँचता है, जहाँ धब्बे फंसी जैसे उभरे दिखाई देते हैं। पुष्पन के दौरान पुष्पों में भी संक्रमण होता है, जिससे बड़ी मात्रा में पुष्प गिर जाते है।
रोकथाम- रोग की रोकथाम के लिए बैवेस्टीन (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव 45 दिनों के अन्तराल पर या डैकोनिल (0.2 प्रतिशत) 15 दिनों के अन्तराल पर प्रभावी होता है।
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा- धब्बे पीले रंग के भूरे रंग का किनारा लिये होते हैं रोग की गम्भीरता मार्च माह के मध्य में बढ़ जाती हैं जब छोटे धब्बे आपस में मिल कर बड़े आकार के हो जाते हैं, जो कभी-कभी किनारों और शीर्ष से बढ़ कर मध्य शिरा तक पहुँच जाते हैं। प्रभावित पत्तियों की दोनों सतहों पर काले रंग की फलनकाय बनती हैं। रोगग्रस्त भाग कमजोर हो कर गिर जाते है।
रोकथाम-
- पपीते की एस्को काइटा पत्ती धब्बा रोग प्रतिरोधी प्रजाति का चुनाव करें।
- एस्कोकाइटा पत्ती धब्बे रोग को डायथेन जेड- 78 (0.2 प्रतिशत) फफूंदीनाशक के प्रयोग से नियन्त्रित किया जा सकता है।
फाइलोस्टिक्टा पत्ती धब्बा- पत्ती पर उत्पन्न धब्बे विभिन्न माप के होते हैै। कुछ गोल 1.2 या 3 से 4 मिलीमीटर के, और दूसरे अनियमित, अण्डाकार या लम्बे 3 से 5 या 2 से 11 मिलीमीटर के होते है। ये केन्द्र में सफेद रंग के और पीले या भूरे रंग के किनारों से घिरे होते हैैं। धब्बे का केन्द्र कागजी हो जाता है और अन्त में गिर जाता हैै। रोगकारक पादप अवशेषों में जीवित रहता है और हवा द्वारा फैलता है।
रोकथाम- इस रोग को 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण के तीन छिड़काव से रोका जा सकता है।
कीट एवं रोकथामरू
माहू- पपीते की फसल का यह प्रमुख कीट है। जो पत्तियों के निचले हिस्से पर छेद कर के रस चूसता है। जिससे पत्तियों में अनेक विकृति आ जाती है। यह कीट विषाणु रोग फैलाने का वाहक भी है।
रोकथाम- इसके नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करना चाहिए।
सफेद मक्खी- यह पपीते का कीट भी पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुँचाता है तथा विषाणु रोग फैलाने में भी सहायक होता है।
रोकथाम- इसकी रोकथाम हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल दवा की 100 से 120 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से अथवा थायोमिथाकजॉम 25 डब्ल्यू जी दवा की 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
लाल मकडी- यह कीट पके फलो व पतियों की सतह पर पाया जाता हैं। इस कीट में प्रभावित पत्तियों पीली व फल काले रंग के हो जाते है।
रोकथाम- इसकी रोकथाम हेतु डायमिथोएट 30 ईसी का 800 से 1000 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।