आज हमारी आवोहवा जहरीली होती जा रही है। धुँए के कारण आसमान में बादल छाए रहते हैं। असल में यह जहरीली गैसों का गुब्बार है जो पराली जलाने का परिणाम है। वैसे तो वर्ष 2007 में ही नेशनल ग्रीन ट्रिव्यूनल ने पराली जलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, लेकिन इस पर जरा भी अमल नहीं किया जा रहा है। धुंए के चलते दिन प्रतिदिन सड़क हादसे भी बढ़ते जा रहे हैं। यह अनुमान लगाया जा रहा हैं कि पराली जलाने से लगभग 15 प्रतिशत तक प्रदूषण बढ़ा है।
हमारे प्रदेश में हर साल लाखों टन गेहूँ और धान की फसल अवशेष ;परालीद्ध जलाये जाते हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार यदि किसान नहीं जागे तो अगले 20 से 30 साल में भूमि की उत्पादन क्षमता बहुत कम हो जायेगी। तापमान बढ़ने से पानी की मांग 20 प्रतिशत तक बढ़ेगी, जबकि इसकी उपलब्धता 15 प्रतिशत तक घट जायेगी।
पराली में जहरीली गैसें- एक वन पराली जलाने से हवा में 3 किग्रा कार्बन कण, 1513 किग्रा कार्बन डाई आक्साइड, 92 किग्रा कार्बन मोनो आक्साइड, 3.83 किग्रा नाइट्रस आक्साइड, 0.4 किग्रा कार्बन मोनो आक्साइड, 3.83 किग्रा नाइट्रस आक्साइड, 0.4 किग्रा सल्फर डाइ आक्साइड, 2.7 किग्रा मीथेन और 200 किग्रा राख घुल जाती है।
खेती पर मारः- किसानों के पराली जलाने से भूमि की उपजाऊ क्षमता लगातार घट रही है। इस कारण भूमि में 80 प्रतिशत तक नाइट्रोजन, सल्फर और 20 प्रतिशत तक अन्य पोषक तत्वों में कमी आई है। मित्र कीट नष्ट होेने से शत्रु कीटों का प्रकोप बढ़ा है। जिससे फसलों में तरह-तरह की बीमारियां हो रही हैं। मिट्टी ऊपरी परत कड़ी होने से जलधारण क्षमता में कमी आई है।
बढ़ने लगे मरीजः- प्रदूषित कण शरीर के अन्दर जाकर खांसी को बढ़ाते हैं। अस्थमा, डायबिटीज के मरीजों को सांस लेना दूभर हो जाता है। फेफड़ों में सूजन सहित टाँन्सिल्स, इन्फेक्शन, निमोनिया और हार्ट की बिमारियाँ जन्म लेने लगती हैं। खासकर बच्चों और बुजुर्गों को ज्यादा परेशानी होती है। फसल अवशेषों को जलाने से स्वास्थ्य सम्बन्धित अन्य समस्याए जैसे- थायराइड हार्मोन स्तर में वृद्धि परिवर्तन होता है। गर्भाअवस्था के दौरान बच्चे के दिमागी स्तर पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इस प्रदुषण से पुरूषांे में टेस्टोस्टेरॉन हार्माेन का स्तर घटता है। स्त्रियों में प्रजनन सम्बन्धी रोग बढ़ जाते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है।
रसायन डायआवसिन- फसल अवशेषों में कीटनाशकों के अवशेष होने के कारण इसको जलाने से विषैला रसायन डायआवसिन हवा में घुल जाता है। फसल की कटाई के समय एवं कटाई के उपरान्त अवशेषों को जलाने से हवा में विषैले डायआवसिन की मात्रा 33-270 गुना बढ़ जाती है। डायआवसिन का प्रभाव वातावरण में दीर्घ समय तक रहता है, जो मनुष्य एवं पशुओं की त्वचा पर जमा हो जाता है, और उससे खतरनाक बीमारियाँ होती हैं।
स्वच्छ वातावरण हेतु चिन्ताजनकः-
 यह वायु प्रदुषण वातावरण की निचली सतह पर एकत्रित होता है, जिसका सीधा प्रभाव आबादी पर होता है।
 इस प्रकार का प्रदूषण दूरगामी इलाकों एवं विस्तृत क्षेत्रों में हवा द्वारा फैलता है। जिसका निमन्त्रण हमारे वश में नहीं है।
 इस प्रकार का प्रदूषण ग्रीन हाउस गैस उत्पादन कर वैश्विक मौसम परिवर्तन का कारण बनता है।
 फसल अवशेष जलाने से वातावरण में खतरनाक रसायन घुल जाता हैए जो एक कैंसरकारी प्रदूषण है।
मृदा के भौतिक गुणांे पर प्रभाव- फसल अवशेषों को जलाने के कारण मृदाताप में वृद्धि होती है। जिसके फलस्वरूप मृदा सतह सख्त हो जाती है एवं मृदा की सघनता मंे वृद्धि होती है, साथ ही मृदा जल धारण क्षमता में कमी आती है तथा मृदा में वायु-संचरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
मृदा पर्यावरण पर प्रभाव- फसल अवशेषों को जलाने से मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवों की संख्या पर बुरा प्रभाव पड़ता है, और फसल अवशेष जलाए जाने से मिट्टी की सर्वाधिक सक्रिय 15 सेमी तक की परत में सभी प्रकार के लाभदायक सूक्ष्म जीवियों का नाश हो जाता है। फसल अवशेष जलाने से केचुएं, मकड़ी जैसे मित्र कीटों की संख्या कम हो जाती है, इससे हानिकारक कीटों का प्राकृतिक नियन्त्रण नहीं हो पाता, फलस्वरूप महंगे कीटनाशकांे का इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है। इससे खेती की लागत बढ़ती है।
मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की कमीः फसल अवशेषों को जलाने के कारण मिट्टी में पाये जाने वाले पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश एवं सल्फर नष्ट हो जाते हैं, इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है। कृषि वैज्ञानिकों ने एक अनुभान के अनुसार बताया कि एक टन धान के पुआल को जलाने से 5.5 किग्रा नाइट्रोजन, 2.3 किग्रा फास्फोरस, 25 किग्रा पोटैशियम तथा 1.2 किग्रा सल्फर एवं 400 किग्रा कार्बनिक, पदार्थ नष्ट होती है।
यातायात पर दुष्प्रभावः- फसल अवशेषांे के जलाने से उत्पन्न छोटे-छोटे कणों के पास जब ठण्डी हवा पहुंचती है तो कण उसमें फस जाते हैं तथा धुन्ध का निर्माण करते हैं। परिणाम स्वरूप सभी तरह का यातायात प्रभावित होता है, जिसकी परणिति कई प्रकार की दुर्घटनाओं के रूप में सामने आती हैं।

फसल अवशेष प्रबन्धन एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन का मुख्य घटक है।
भारत वर्ष में उत्पादित फसल अवशेष की कुल मात्रा का 27 प्रतिशत गेहूँ तथा धान का लगभग 51 प्रतिशत है। इन अवशेषों का 1/3 भाग जानवरों को खिलाने व अन्य प्रयोजन के लिये उपयोग किया जाता है। फसल उत्पादन प्रणालियों में इन अवशेषों को रिसाइक्लिंग करने की भारी सम्भावना है। फसल अवशेषों की उपलब्धता एवं उसमें पोषक तत्वों का स्तर सारिणी-1 में वर्णित है-
सारिणी 1- धान-गेहूँ फसल अवशेषों की उपलब्धता एवं उनमें पोषक तत्वों का स्तर (मिलियनटन)
प्रदेश फसल अवशेष उपलब्धता (मि0टन) पुनः चक्रण हेतु अवशेष उपलब्धता पोषक तत्व (एन0पी0के0) सामर्थ्य
धान गेहूँ कुल कुल सापेक्ष पुनः चक्रण हेतु उपलब्धता रसायनिक प्रतिस्थापन मान
पंजाब 10.0 18.2 28.2 9.40 0.462 0.154 0.077
हरियाणा 2.5 9.7 12.2 4.07 0.194 0.065 0.032
उ0 प्रदेश 14.0 27.5 41.5 13.83 0.677 0.226 0.113
बिहार 9.6 5.3 14.9 4.97 0.257 0.086 0.043
पं0 बंगाल 16.7 0.1 16.8 5.60 0.308 0.103 0.051
कुल 52.8 60.8 113.6 37.87 1.898 0.634 0.316

स्त्रोत सरकार 1999 फसल अवशेष रिसाइक्लिंग व मृदा स्वास्थ्य-
औसतन प्रतिवर्ष 600 से 700 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पादित होता है। धान-गेहूँ प्रणाली में 10 टन/हे0 जैवभार उत्पादन हेतु लगभग 500 किग्रा0 पोषक तत्व मृदा से अवशोषित होता है। फसल द्वारा मृदा से अवशोषित पोषक तत्व का 25 प्रतिशत नाइट्रोजन व फास्फोरस, 50 प्रतिशत सल्फर एवं 75 प्रतिशत पोटाश जड़, तना व पत्ती में समग्रहीत होता है। विभिन्न फसल अवशेषों में अवशोषित पोषक तत्व की उपलब्धता के अनुसार अपघटन के बाद मिट्टी में उपलब्धता बढ़ती है। (सारिणी-2) है।
सारिणी 2- फसलों के विभिन्न अवशेषों में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा।
क्रमांक फसल अवशेष नत्रजन (ः) फास्फोरस (ः) पोटाश (ः)
1 घ् 0.53 0.10 1.10
2 0.35 0.10 0.60
3 2.25 0.12 –
4 0.36 0.08 0.70
5 0.40 0.25 0.40
6 0.57 0.28 1.40
7 0.47 0.57 1.65
8 0.65 0.75 2.50
9 0.70 0.48 1.40
10 0.52 0.09 0.85
11 0.35 0.12 0.36
12 2.65 0.41 2.42
13 1.50 0.45 2.50

उपरोक्त सारणी को देखकर हम स्पष्ट रूप से अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी अधिक मात्रा में मिट्टी के आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति फसलों के विभिन्न अवशेषों को इन-सीटू व एक्स-सीटू प्रबन्ध करके कर सकते हैं। अवशेषों को एक्स-सीटू प्रबन्धन के तहत वर्मी/नाडेय/वेस्ट डिकम्पोजर द्वारा कम्पोस्ट खाद तैयार कर खेत में डालना भी लाभप्रद होता है। 

फसल अवशेष के इन-सीटू प्रबन्धन हेतु कृषि मशीनीकरण-
फसल अवशेषों के प्रबन्धन के लिये सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की मशीनें जिनमें रोटावेटर, हैप्पीसीडर, मतचर, कटर कम स्प्रेडर, जीरो टिल सीड कम फर्टीड्रिल, रिवर्सेबुल यम.बी. प्लाऊ, शर्व मास्टर आदि कृषि मशीनीकरण को प्रोत्साहन योजना चलाई जा रही है। पंजाब, हरियाणा, उ0प्र0 और दिल्ली के सरकारों ने वायु प्रदुषण को संरक्षित करने के लिये 2018-19 से 2019-20 की अवधि के लिये फसल अवशेष के इन-सीटू प्रबन्ध के लिए आवश्यक मशीनरी को सब्सिडी देने के लिए एक विशेष योजना मंजूर की है। यह योजना केन्द्रिय क्षेत्र (100 प्रतिशत केन्द्रिय शेयर) कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा लागू की जा रही है। केन्द्रिय निधि से कुल रू0 1151.80 करोड़ (2018-19 में 591.65 करोड़ रू0 और 2019-20 में 560.15 करोड़ रू0) का प्राविधान किया गया है।
फसल अवशेष प्रबन्धन की रणनीति-

  1. पुनर्चक्रण/खेतों के अन्दर सस्यावशेष प्रबन्धन-
    फसल की कटाई के बाद खेत में बचे अवशेष, घास, पत्तियाँ व ढंूढ आदि को सड़ाने के तिथि किसान आई फसल को काटने के पश्चात् 20-25 किग्रा0 नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़ककर कल्टीवेटर या रोलवेटर से काटकर मिट्टी में मिला देना चाहिए, इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना प्रारम्भ कर देंगे तथा लगभग एक माह में स्वयं सड़कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्व प्रदान कर देंगे, क्योंकि कटाई के पश्चात् दी गई नाइट्रोजन अवशेषों मंे सड़न की क्रिया को तेजकर देती है। अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो फसल बोने पर नई फसल के पौधे छोटे रहते हैं और पीले पड़ जाते हैं, क्योंकि उस समय अवशेषों के सड़ाव जीवाणु भूमि की नाइट्रोजन का उपयोग कर लेते हैं तथा प्रारम्भ में फसल पीली पड़ जाती है। अतः फसल अवशेषों का प्रबन्धन करना अत्यन्त आवश्यक है तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में वृद्धि कर जमीन को खेती योग्य सुरक्षित रख सकते हैं।
  2. वेस्ट डिकम्पोजर द्वारा अवशेष/कचरा प्रबन्धन-
    वेस्ट डिकम्पोजर लाभकारी सूक्ष्म जीवों का एक समूह है, जो कृषि, प्शु और रसोई आदि से उत्पन्न सभी प्रकार के कचरे की 40 दिनों के भीतर खाद बनाकर उपयोग करने योग्य रूप में परिवर्तित करने में सक्षम है। वेस्ट डिकम्पोजर जैव उर्वरक, वायो कन्ट्रोल और साथ ही मिट्टी स्वास्थ्य पुनखद्धारक के रूप में काम करता है। यह अन्य प्रकार से भी, जैसे कि, सभी प्रकार के कृषि और वागवानी फसलों में रोगों से लड़ने के लिये, जैव कचरे की शीघ्र कम्पोस्टिंग, ड्रिप सिंचाई, पत्तों पर छिड़कन के लिये व जैविक कीटनाशक के रूप में तथा फसल के अवशेषों की कम्पोस्टिंग के साथ-साथ बीज उपचार के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है।
    एक बोतल बेस्ट डीकम्पोजर से और अधिक वेस्ट डीकंपोजर का निर्माण-वेस्ट डीकंपोजर किसानों को एक छोटी से बोतल में दिया जाता है और वे खुद किसी भी अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग किये बिना इससे और अधिक वेस्ट डीकंपोजर तैयार कर सकते हैं।
    बनाने का तरीका-
     दो किग्रा गुड़ लेकर इसे 200 ली0 पानी भरे प्लास्टिक ड्रम में मिला लें।
     अब वेस्ट डिकंपोजर की बोतल में उपस्थित सामग्री को गुड़ वाले प्लास्टिक ड्रम में डाल दें।
     ड्रम में डिकंपोजर की अच्छी तरह खोलने के लिये एक लकड़ी की छड़ी से इसे ठीक तरह मिलाए।
     ड्रम को ढ़क दे और प्रतिदिन इसे एक-दो बार हिला दें।
     पाँच दिनों बाद ड्रम में मौजूद घोल की उपरी सतह झागदार, और घोल दूधिया हो जायेगा।
    नोट- किसान उपर्युक्त घोल से बार-बार वेस्ट डील पोजर का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए 20 लीटर वेस्ट डीकंपोजर घोल का दो किग्रा गुड़ के साथ ड्रम में 200 लीटर पानी में मिला दें। फिर से यह सात दिनों में तैयार हो जायेगा।
    शीघ्र कम्पोस्टिंग-
    एक बोतल द्वारा वेस्ट डीकंपोजर से आगे बनाये गये डीकंपोजर का उपयोग जैव कचरे को विघटित करके जैविक खाद तैयार करने के लिये किया जाता है।
     एक टन जैव कचरे, जैसे कृषि, रसोई, गाय का गोबर आदि थी 18-20 सेमी मोटी परत जमीन पर ढेर कर दी जाती है।
     वेस्ट डील फेजर के घोल के साथ कचरे को गीला कर दें।
     जैव कचरे थी एक और 18-20 सेमी मोटी परत बनाई जाती है और वेस्ट डिंक फेजर के घोल से दोबारा गीला कर देते है।
     जब तक कि 30-45 सेमी की मोटी परत न बन जाये, ऊपर की प्रक्रिया दोहराते रहे।
     समान कम्पोस्टिंग के लिये हर साल दिनों के अंतराल पर ढ़ेर के उलट-पलट करते रहें और इस ढ़ेर पर हर बार वेस्ट डींक फेजर का घोल डालते रहें।
     कम्पोस्ंिग की पूरी अवधि के दौरान 60ः नमी बनाये रखें। यदि आवश्यक हो तो और घोल मिला दें।
     कम्पोस्ट खाद 40 दिनों उपरान्त उपयोग करने के लिये तैयार होती है।
    खेत में फसल अवशेषों की कम्पोस्टिंग-
     फसल कटाई के बाद पानी भरे खेत में फसल के डंठल पर घोल का छिड़काव करने के बाद कुछ दिनों तक छोड़ दिया जाता है।
     जल की कमी वाले खेतों में फसल के अवशेषों पर डींक फेजर घोल छिड़कते है और जब किसान खेत में सिंचाई करता है, तो विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
     200 ली0 घोल को एक एकड़ खेत में फसल अवशेषों पर इन-सिटू कम्पोस्टिंग के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
  3. केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) निर्माण में उपयोग-
    केंचुआ खाद निर्माण हेतु फसल अवशेषों के विधिवत गोबर के साथ उचित मात्रा में वैज्ञानिक विधि से मिलाकर केंचुआ खाद बनायी जाती है, ताकि अवशेषों को खाकर केंचुए गुणवत्तापूूर्ण केंचुआ खाद बन सके।
  4. नाडेप कम्पोस्ट का निर्माण-
    फसल अवशेषों से नाडेप कम्पोस्ट बनाने हेतु 10’ लम्बी, 6’ चौड़ा तथा 3’ ऊंचा ईट का जालीदार ढांचा। टैंक बनाकर निचली हिस्से के फर्श बना देते है। टैंक में सर्वप्रथम 6’’ मोटी अवशेषों की परत बिछाते है। उस पर 0.5 सेमी मिट्टी की परत डालते है तथा इसमें 5 किग्रा0 गोबर को 100 ली0 पानी में घोलकर अवशेषों की परत को भिगोते है। यह प्रक्रिया अपनाकर टैंक को उपर तक भर देते है। 100-110 दिनों में उपयोग हेतु लगभग 35 कु./टैंक खाद तैयार हो जाती है।
  5. जैविक खेती में उपयोग-
    आज जैविक उत्पादों के प्रति आकर्षण देश दुनिया में तेजी से बढ़ रहा है, जैविक उत्पादन में फसल अवशेष टिकाऊ पादप पोषण व्यवस्था के सुनिश्चित करते है।
  6. जैव उर्वरक निर्माण में उपयोग-
    अनेक फसल अवशेषों के विघटित कराकर उनसे जैव उर्वरकों के बनाने में मदद मिलती है। जैसे गन्ने से जूस निकालने के बाद अवशेष पर जैविक इनाकुलोशन कराकर जैव उर्वरक निर्मित किये जाते है।
  7. फसलों में मल्च के रूप में विघाया जाना-
    बिछावन या समिश्रण एक अन्य लाभदायक अवशेष प्रबन्धन का तरीका है। इसके अनेक फायदे है। जैसे- मृदा की उत्पादकता में टिकाऊपन पोषक तत्व उपलब्धता, मृदा ताप नियन्त्रित रहने के साथ-साथ मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है, इसलिये ऐसे क्षेत्रों जहा वाष्पोत्सर्जन तेज होता है या वहा पानी की उपलब्धता कम होती है। वहां भूमि संरक्षण हेतु गेहूं की पत्तियां, पुआता आदि बिछाया जाना आवश्यक होता है।
  8. मशरूम उत्पादन में उपयोग-
    फसल अवशेष खासकर धान का पुआता व गेहूं का भूसा मशरूम उत्पादन हेतु अति उपयोगी है। इसके प्रयोग के बिना मशरूम उत्पादन अति महंगा साबित होता है।
    स्थाई मृदा स्वास्थ्य का आधार-फसल अवशेष का उचित प्रबन्धन-
    यदि किसान उपलब्ध अवशेषों को जलाने की बजाए उनको वापस भूमि में मिला देते है तो वह स्थाई मृदा स्वास्थ्य को विधिवत मजबूत करते है।
    कार्बनिक पदार्थ की उपलब्धता में वृद्धि-
    कार्बनिक पदार्थ ही एकमात्र ऐसा स्रोत है जिसके द्वारा मृदा में उपस्थित विभिन्न पोषक तत्व फसलों के उपलब्ध हो जाते है तथा कम्बाइन द्वारा कटाई किये गये प्रक्षेत्र उत्पादित अनाज की तुलना में लगभग 1.29 गुना अन्य फसल अवशेष होते है। ये खेत में सड़कर मृदा कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करते है। जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ती है, पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है, क्योंकि फसल अवशेष से बने खाद पोषक-तत्वों का भण्डार होता है। फसल अवशेषों में लगभग सभी आवश्यक पोषक तत्वों के साथ नाइट्रोजन की मात्रा पाई जाती है, जो कि एक प्रमुख पोषक तत्व है।
    मृदा के भौतिक गुणों में सुधार-
    मृदा में फसल अवशेषों के मिलाने से मृदा की परत में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ने से मृदा सतह की कठोरता कम होती है तथा जल धारण क्षमता एवं मृदा में वायु संचरण में वृद्धि होती है। भूमि से पानी के भाप बनाकर उड़ने में कमी आती है।
    मृदा की उर्वरा शक्ति में सुधार-
    फसल अवशेषों के मृदा में मिलाने से मृदा के रसायनिक गण जैसे उपलब्ध पोषक तत्वों की मात्रा, मृदा की विद्युत चालकता एवं मृदा पीएच में सुधार होता है तथा फसल के पोषक तत्व अधिक मात्रा में मिलते हैं।
    मृदा तापमान में सुधार-
    फसल अवशेष भूमि के तापमान के बनाये रखते है। गर्मियों में छायांकन प्रभाव के कारण तापमान कम होता है तथा सर्दियों में गर्मी का प्रवाह ऊपर की तरफ कम होती है, जिससे तापमान बढ़ता है।
    फसल उत्पादकता में वृद्धि-
    भूमि में खरपतवारों के अंकुरण व बढ़वार में कमी होती है। फसल अवशेषों के मृदा में मिलाने पर आने वाली फसलों की उत्पादकता में भी काफी मात्रा में वृद्धि होती है।
    निष्कर्ष- फसल अवशेषों के जलाने से इनसे मिलने वाले लाभों से तो किसान वंचित रह जाने है, वहीं भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने वाले जीवाणु आग से जल जाते है। फसल अवशेषों के जलाने से नुकसान ही है, कोई फायदा नही है।
    इसलिये इनको जलाना नही चाहिए।
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