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    Home»Editorial»मनुष्य को अपने तन्त्र से बाहर भी कर सकती है, भविष्य की पृथ्वी
    Editorial Environment

    मनुष्य को अपने तन्त्र से बाहर भी कर सकती है, भविष्य की पृथ्वी

    राणा प्रताप सिंह प्रोफेसर, पर्यावरण विज्ञान बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ-226025 (www.ranapratap.in)
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    ज्ञान विज्ञान को साधकर अपने हित में इस्तेमाल करने की जो क्षमता मनुष्य मे विकसित हुई, वह पृथ्वी-तन्त्र के अन्य जीवों में नहीं है । पेड़-पौधों और बहुत से अन्य जीव-जन्तु हाँलाकि मनुष्य से अधिक संघर्षशील, बुद्धिमान और उदार हैं, उन्होंने मनुष्य की तरह पृथ्वी-तन्त्र के खिलाफ अपने वर्चस्व का तन्त्र नहीं बनाया । उन्होंने प्रकृति की सार्वभौमिक व्यवस्था से छेड़-छाड़ नहीं की । इनमें से कई पृथ्वी-तन्त्र के लिए मनुष्य से भी अधिक उपयोगी हैं, जैसे हरे पेड़ और अन्य हरी वनस्पतियाँ, जो सूरज की ऊर्जा सोखकर पृथ्वी के समूचे जैविक-तन्त्र के लिए भोजन और प्राण वायु निर्मित करते हैं । हरे पेड़-पौधों जैसी विलक्षण क्षमता मनुष्य सहित किसी और जीव समूहों में नहीं है । सामान्यतः जन्तु समूह के जीव, पेड़-पौधों पर ही निर्भर हैं । वे पृथ्वी पर पेड़-पौधों के बाद आए और अपने लाभ को लेकर अधिक स्वार्थी और लालची हैं । मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं । मनुष्य का शरीर और उसका मन पृथ्वी-तन्त्र की जटिलतम जैविक संरचना है । धीरे-धीरे मनुष्य के अपने तात्कालिक स्वार्थ और लालच के चलते पृथ्वी-तन्त्र के प्रतिकूल एक बड़ा ताकतवर मानव-तन्त्र बना लिया, जो पृथ्वी-तन्त्र की उन प्राकृतिक व्यवस्थाओं के लिए खतरा बनता जा रहा है, जिसका मनुष्य स्वयं हिस्सा है । यह कुछ वैसा ही है, जैसा अनेक पौराणिक कहानियों में स्वयं अपना नुकसान करने की सीख देने के लिए, एक ऐसे मूर्ख लकड़हारे का व्याख्यान गढ़ा गया है, जो जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है ।

    यह पृथ्वी-तन्त्र क्या है? और इसके खिलाफ खड़ा हो रहा यह मानव-तन्त्र क्या है? इसे ठीक से समझे बिना हम पृथ्वी के भविष्य की रूपरेखा नहीं बना पाएंगे । पृथ्वी-तन्त्र की सही समझ से हमें यह भी स्पष्ट होगा कि मनुष्य का भविष्य, पृथ्वी के भविष्य से अधिक-संकटग्रस्त है । मनुष्य के बिना पृथ्वी और पृथ्वी-तन्त्र के अनुकूल सभी जैविक व्यवस्थाएँ पृथ्वी बनी रहेगी, पर पृथ्वी के बिना मनुष्य अन्य ग्रहों-उपग्रहों में वर्तमान मनुष्य के स्वरूपों में रह पायेगा कि नहीं, कहना कठिन है । इस आशंका से अधिकांश समझदार लोग विश्वभर में चिंतित हो रहे हैं । थोड़े से लोग पृथ्वी छोड़कर अन्य ग्रहों में जा बसे या पृथ्वी के गर्भ में छिपकर रहने का अनुकूलन करें, इससे एक प्रजाति के रूप में मनुष्य की उपस्थिति कितनी बची रहेगी, कहना कठिन है ।

    पृथ्वी-तन्त्र वास्तव में पृथ्वी के विभिन्न जैविक एवं अजैविक अवयवों के बीच के संबंधों और अंतर्क्रियाओं की कार्यक्षमता से निर्मित होता है । पृथ्वी-तन्त्र में सबका काम बटा हुआ है । मिट्टी न सिर्फ अनेक जीवो का घर है, तथा उसमें अनेक जैविक क्रियाएं चलती रहती हैं, वह स्वयं एक जैविक-तन्त्र है । उसकी एक जीवित पारिस्थितिकी है, जिसमें सूक्ष्मजीव, पौधों की जड़ें, कई वनस्पतियों के तने, कीड़े-पतिंगे, सांप, गोजर, केचुएं, कंकड़, पत्थर, पानी, हवा, आग, आकाश अर्थात दिखने वाली खाली जगह, सब कुछ एक क्रम में एक दूसरे से जुड़ा हुआ है । और एक-दूसरे पर निर्भर होकर श्रृंखला बद्ध तरीके से जन्म-मरण, पोषण और मृत्यु, निर्माण और विखंडन का अनवरत जैविक-अजैविक चक्र चलता रहता है, जो पृथ्वी की विशिष्ट पहचान है । वायु एक ऐसा मिश्रण है, जिसमें जीव भी हैं, और अजीव भी हैं । हम सभी जीव इसमें सांस लेते हैं, इसीलिए इसे प्राण वायु कहते हैं । प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन ग्रहण कर हमारा शरीर अपनी शारीरिक अभिक्रियाएं चलाता हैं, जो कार्बनिक खाद्य पदार्थों को तोड़कर ऊर्जा उपलब्ध कराती है । सभी जीवित प्राणियों के सांस से तथा मृत प्राणियों के विघटन से ऊर्जा के साथ जो कार्बन डाइ ऑक्साइड निकलती है, उसे हरे पेड़-पौधे सोख कर कार्बनिक भोज्य पदार्थों में फिर से बांध देते हैं । जो किसी के लिए उत्सर्जन हैं, वह दूसरे के लिए भोज्य है । कैसी अद्भुत चक्रीय व्यवस्था है, प्रकृति-तन्त्र की । यही पृथ्वी-तन्त्र है ।

    ऊर्जा का दृश्य स्वरूप अग्नि, कार्य, रौशनी और जीवन तथा मशीनों का संचालन है । पदार्थों के टूटने से पदार्थ एवं ऊर्जा मुक्त होते और पदार्थों के जुड़ने से ऊर्जा और पदार्थ बंध जाते हैं । वह चाहे पत्थर हो, मिट्टी हो, रसायन हो, पानी हो, वायु हो या कोई भी जीव हो, यह प्रक्रियाएँ सभी के बाहर और भीतर चलती रहती है । यही पृथ्वी-तन्त्र की व्यवस्थाएँ हैं जिनका बने रहना पृथ्वी की जैविकता के लिए जरूरी है । स्वयं मनुष्य जब मां की कोख में स्वरूप लेता है, तो ऊर्जा और पदार्थ ही उसे जीव के रूप में विकसित करते हैं । सभी जीवों का क्रमिक विकास अनवरत चलता रहता है, जन्म से मृत्यु तक । बाहर से भी और भीतर से भी । जब वह टूटने लगता है, विखंडित होने लगता, उम्र से, मन से, शरीर से या मृत्यु से तो यही ऊर्जा और पदार्थ टूटने लगते, बिखरने लगते, मुक्त होने लगते हैं । सभी जीवों की यही कहानी है । सूक्ष्मजीवों से लेकर ह्वेल तक, कोरोना वायरस से लेकर किसी भी विशालकाय वृक्ष या प्राणी तक ऊर्जा और पदार्थ का जुड़ना और टूटना ही जैविकता है । पत्थर से लेकर पानी तक अजीवों में भी जुड़ने और टूटने की वैसी ही प्रक्रिया चलती रहती है । आदिकाल से लेकर आज तक सब कुछ उसी पृथ्वी-तन्त्र की चक्रीय व्यवस्था से सम्पन्न हो रहा है । आकाश शून्य नहीं है । खाली जगह भी नए निर्माण के लिए जरूरी है । खाली जगह की अपनी एक विशिष्ट पारिस्थिकीय कार्य व्यवस्था होती है । एक छोटे से गड्ढे का अपनी पारिस्थिकी और अपना पृथ्वी-तन्त्र है, तथा सहारा के न खत्म होने वाले गर्म रेगिस्तान का या बर्फ से ढके पृथ्वी के ध्रुवों का अपना पारिस्थिकी एवं अनोखा पृथ्वी-तन्त्र है ।

    आइए समझे कि यह मानव-तन्त्र क्या है ? आज के युग को हम मानव-युग क्यों कहते हैं ? इस समूचे पृथ्वी-तन्त्र में मनुष्य की हैसियत क्या है ? यह प्रश्न अब बड़ी संख्या में बुद्धिमान लोगों के मन में उठने लगे हैं । जलवायु परिवर्तन और वैश्विक गर्मी, बढ़ती-घटती बारिश, आंधी, तूफानों की अनिश्चितता, हमें लगातार आगाह कर रही है, कि अब कुछ अलग हो रहा है । घाघ की कहावतें अब किसानों के काम नहीं आ रही हैं । पानी की जब जरूरत होती, बादल भाग जाते हैं । जब धूप-गर्मी की जरूरत है, झमाझम बरस कर बादल सब कुछ ठंडा और गीला कर जाते । बादलों की यह आँख मिचौली, आज किसानों को खून के आंसू रुला रही है । किसान ने खेती छोड़ दी तो कल सब रोएंगे ।

    ज्ञान-विज्ञान एक दुधारी तलवार है । विज्ञान से दवाइयां भी बनती हैं, कपडें और मकान भी और एटम बम तथा मिसाइलें जैसे विध्वंसक हथियार भी । विज्ञान जब बाजार के हाथों में व्यापार का हथियार बन कर आ जाता है, और शासकों के अहंकार का पोषक हो जाता, तो युद्ध होते हैं । दुनिया भर में अविश्वसनीयता, अहंकार, लालच और अतिक्रमण के बादल उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं । बारिश हो न हो जब-तब युद्ध हो जाते और विनाश हो जाता । फिर समझौते होने लगते और फिर से नये युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार होने लगती । पिछले दो शताब्दियों में जब पश्चिमी सभ्यताओं में ज्ञान के एक नए स्वरूप के रूप में पश्चिमी विज्ञान का उदय हुआ, तो उसे पुरानी सामंती दुनिया से निकालने के एक नवीन नवजागरण के रूप में देखा गया । औद्योगिक क्रांति से समता-मूलक, अधिक मानवीय और अधिक सुखी समाज की परिकल्पना की गई । पर तब वैश्विक स्तर पर बहुचर्चित विचारको ने मनुष्य के मन की जटिलता और उस जटिलता से उसकी सामाजिक, आर्थिक एवं शासकीय व्यवस्थाओं में होने वाली जटिलता को समझने का प्रयास नहीं किया । औद्योगिक काल में बने अधिकतर सिद्धांत आर्थिक विकास या यूँ कहे तो भौतिक दुनिया में अधिक से अधिक उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण, विपणन एवं वितरण प्रणाली के सिद्धांत ही बने रहे । उन्होंने प्राचीन सभ्यताओं के धीरे-धीरे निर्मित हो रहे, अधिक धारणीय सिद्धांतों, जिनमें भौतिक दुनिया के साथ-साथ मन को साधने वाली एक अध्यात्मिक दुनिया के ज्ञान को विकसित किया गया था, एकदम से दर किनार कर दिया । लंबे अरसे में विकसित प्राचीन ज्ञान-प्रणालियां को अवैज्ञानिक एवं बेकार मान लिया गया । पर्यावरण और संस्कृति की बात, धर्म और अध्यात्म की बात एक दौर में आर्थिक सिद्धांतकारों, वैश्विक प्रबंधको, विज्ञानविदों, शासकों-प्रशासकों एवं चिंतकों और शोधार्थियों के बीच बचकानी मानी जाने लगी । सब कुछ अर्थशास्त्र और कुशल प्रबंधन को केंद्र मे रखकर देखा जाने लगा । और देखते ही देखते आर्थिक रूप से ताकतवर देशों और इनके विशाल बाजार-तन्त्र ने दुनिया को वैश्विक बाजार बना दिया । कृत्रिम रसायनों से बनी उपभोक्ता वस्तुओं की बाढ़ आ गयी । गर्मी बढ़ाने वाली गैसों का उत्सर्जन बेलगाम होकर बढ़ने लगा । इस्तेमाल की गई चीजों की अधिकता से कूड़े का पहाड़ खड़ा होने लगा । मिट्टी, पानी, हवा, शरीर, मन, समय और समूचा जीवन-तन्त्र विषैला हो गया । हमारे भोजन की थाली में अनेकों तरह के न दिखने वाले जहर परोसे जाने लगे । घातक बीमारियां बढ़ने लगी । विनाशक तूफान आने लगे । मौसम बिगड़ने लगा । तब चिंता हुई और एक बड़ी और जागरूक वैश्विक आबादी को लगने लगा कि पृथ्वी का मौसम बिगड़ गया है, तो वैश्विक पंचायतें शुरू हो गई । अब हम पृथ्वी की चिंता कर रहे हैं । पृथ्वी-तन्त्र बहुत विशाल है, और अनूठा भी । पृथ्वी ब्रह्मांड का हिस्सा है । हम न अभी तक ब्रह्मांड को पूरी तरह समझ पाए हैं, न पृथ्वी-तन्त्र को और न ही मनुष्य की भीतरी जटिलता को ।

    अंधा धुंध निर्माण और उपभोग, युद्ध और अपव्यय, कूड़े और जहर की बहुलता, युद्ध और घृणा, देशों का, समाजों का, परिवारों का और लोगों का टूटते जाना, यही आज का मानव-तन्त्र हैं, जिससे हमें बाहर निकलना होगा । यही इस मानव युग की सबसे बड़ी भूल है, जिसे समय रहते समझा और दुरुस्त नहीं किया गया तो पृथ्वी का कुछ बिगड़े न बिगड़े, मनुष्य का एक प्रजाति के रूप में संकट लगातार बढ़ता जाएगा ।

    हमें समझना होगा कि, पृथ्वी का भविष्य इतना संकटग्रस्त नहीं है जितना मनुष्य का । इस अर्थशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानव युग ने इस पृथ्वी-तन्त्र में मनुष्य का भविष्य असुरक्षित कर दिया हैं । पृथ्वी विशाल है, ताकतवर है, अनोखी है, विशिष्ट है, और रहस्य रोमांच की कोख है । वह हर उस जीव को नष्ट कर देती है, जो उसके तन्त्र को नष्ट करने लगता है । डायनासोर जैसे विशाल जीवों के जीवाश्म और जीवाश्म ईंधन के भंडार इसके ज्वलत उदाहरण हैं । मनुष्य उसके तन्त्र का हिस्सा नहीं बनेगा, तो वह उसे भी अपने तन्त्र से बाहर कर देगी । इसलिए यह समय मनुष्य के चौकन्ना होने का समय है । अभी अपनी पशुता से संघर्ष कर मनुष्यता को स्थापित करने के लिए हम साझे संघर्षशील समाजों की जरूरत है, जो समझदारी से अपनी भीतरी और बाहरी लड़ाई को तेज करें और इस पृथ्वी तन्त्र का पृथ्वी अनुकूलन हिस्सा बनें । हमें पृथ्वी के नहीं अपने भविष्य की चिंता करने की आवश्यकता है ।

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