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    Editorial

    कृषि, खाद्य सुरक्षा और किसान आंदोलन

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    बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में डा एम एस स्वामीनाथन के नेतृत्व में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के प्रयासों से  भारत कुछ हिस्सों में सफल मानी गयी हरित क्रांति से देश में अनाजों का उत्पादन बढ़ा। इससे देश की एक बड़ी आबादी के बीच भुखमरी दूर करना सम्भव हो पाया। परन्तु इसी के चलते समकालीन विश्व और भारत में भी अनाजों और शर्करा की कुल पैदावार अब पोषणयुक्त खाद्य सुरक्षा के पैमानों पर आवश्यकता से अधिक है। फलतः अनाजों और अन्य कृषि उपजों के भंडारण और संरक्षण की समस्याएँ लगातार बढ़ रही है। शर्करा उत्पन्न करने वाली मुख्य फसल गन्ने के भुगतान में गन्ना मिल अतिशय बिलम्ब कर रहे हैं। अनाजों की सरकारी खरीद तथा सूखे अनाजों के भंडारण में कम झंझटों के कारण किसान इन फसलों को बोना बेहतर मानते हैं। परन्तु यह सिर्फ सहूलियत की बात है। इस मुद्दे को खाद्य सुरक्षा और बढ़ते कृषि संकट से जोड़ कर देखा जाय तो कृषि विविधिकरण का न होना भी इसका एक प्रमुख कारण है।  

            खाद्य सुरक्षा की नई अवधारणाओं के चलते  संयुक्त राष्ट्र  संघ  द्वारा हाल ही में निर्धारित किए गए धारणीय विकास लक्ष्यों के अनुसार खाद्य सुरक्षा अब मात्र भुखमरी दूर करने तक सीमित नही है। नई वैश्विक अवधारणाओं के अनुसार हर व्यक्ति की पर्याप्त पोषण युक्त खाद्य पदार्थों तक पहुँच होना खाद्य सुरक्षा है। लगभग छह दशकों की हरित क्रांति एवं इसके बाद की नीली तथा श्वेत क्रांति के भारी प्रचार प्रसार से मछली, सब्ज़ियों, फलों, दूध और मांस के अन्य स्रोतों का उत्पादन भी कुछ हद तक बढ़ा है, परन्तु प्रोटीन, मिनरल तथा ऐंटीआक्सिडंट उपलब्ध कराने वाले खाद्य पदार्थों में अभी भी हम पर्याप्त पोषण नहीं ले पा रहे हैं। इनका आयात भी लगातार बढ़ रहा है। हमारी खाद्य संस्कृति में सब्जियों और फलों का पर्याप्त मात्रा में समावेश, कम से कम ग्रामीण परिवारों एवं कम आय वाले शहरी परिवारों में तो नहीं ही हो पाया है। खाद्य तेलों में भी हमारा राष्ट्रीय आयात अभी तक समेटा नहीं जा सका है।

            खाद्य सुरक्षा और कृषि प्रबंधन में इन तथाकथित कृषि क्रांतियो के बाद आज देश जहाँ खड़ा है, हमारा लक्ष्य वहाँ पहुँचना तो कतई नहीं था। लगभग 100 दिनों से अधिक लम्बा किसान आन्दोलन झेलते हुए हमें लगता है, कि कृषि प्रबन्धन हमारा कृषि प्रधान देश कहीं रास्ता भटक गया। किसानों के बीच बीज, खाद और कृषि रसायनों की बड़ी खेप लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी घुसपैठ बना ली है। हमारा अत्यंत विशाल सरकारी कृषि तंत्र उसे रास्ता देता रहा। धीरे धीरे जमीन, जल, वायु, और सभी प्रकार के शाकाहारी एवं मांसाहारी भोज्य पदार्थ विषाक्त हो गए हैं। कहते हैं कि पंजाब के कुछ क्षेत्रों से कैंसर की ट्रेनें चलने लगी हैं, पर इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य क्षेत्रों में कैंसर के मामले कम है। वैज्ञानिकों और डॉक्टरों का अनुमान है कि आने वाले समय में हम पेट के कैंसर की महामारी से जूझने वाले हैं। देश भर में कोलोन कैंसर और फेफड़े के कैंसर लगातार बढ़ते जा रहे हैं । एक ओर हम हरित क्रांति का उत्सव मनाते रहे, तो दूसरी ओर किसान और कृषि कार्य लगातार बढ़ते जा रहे उत्पादन अस्थायित्व, कृषि उपज के भंडारण तथा बाजार के उतार चढ़ाव के संकटों से उलझते रहे। किसानों की नई पीढ़ी खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी करने लगी है। आज हमारी जमीन, जल, हवा और खाने की थाली अनेकों प्रकार के विषाक्त पदार्थों से दूषित हो चुकी है, और समृद्ध तथा जागरूक लोग जैविक कृषि उत्पादों को महँगे दामों पर भी ख़रीदना चाहते हैं। परन्तु प्रामाणिक रूप तथा पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पोषक खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं।

           वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास लक्ष्यों में दूसरा लक्ष्य है, दुनिया से भूख को समाप्त करना, खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना, पोषण में सुधार करना एवं धारणीय कृषि का विकास करना। अधिक लागत, अधिक संसाधनों की खपत और विष का व्यापार करने वाली हमारी बहुचर्चित हरित क्रांति की कृषि विधियाँ न तो  आर्थिक रूप से धारणीय है, न पर्यावरणीय रूप से और न ही सांस्कृतिक रूप से। इस कृषि पद्धति ने खेती की लागत बढ़ा दिया, जबकि यह पद्धति जमीन, जलवायु एवं जैविक आदि कारणों से उपज में होने वाले नुक़सान से खेती को सुरक्षित नहीं कर पायी है। हमें समझना होगा कि मात्र धान, गेहूँ का उत्पादन बढ़ने से हमारी खाद्य सुरक्षा सम्भव नहीं हो पायेगी। अनाजों में भी हमें कम पानी और कम लागत में पैदा होने वाले पोषण में बेहतर मोटे अनाजों का रक़बा बढ़ाना होगा। हमें बहुसंख्यक छोटे किसानों और कृषि मज़दूरों के लिए वर्ष भर छोटी जोतों में कुछ न कुछ उपजाने वाली जैव विविधता से भरी प्राकृतिक एवं जैविक खेती की विष विहीन तथा वर्ष भर रोजगार देने वाली कृषि पद्धतियाँ विकसित करनी होगी। तकनीकी तौर पर बहुमंज़िली खेती, ड्रिप इरिगेशन, कृषि हितैषी सूक्ष्म जीवों एवं कृषि मित्र कीटों तथा छोटे कृषि उपकरणों के विकास और व्यापार की नई सम्भावनाएँ कृषि क्षेत्र में नए लघु एवं सीमांत उद्योंगो की ऋंखला  खड़ी कर सकते हैं। परन्तु कृषि बजट में वर्ष दर वर्ष इन महत्वपूर्ण सम्भावनाओं को बढ़ावा देने से परहेज़ किया जाता है, जिससे जैविक खेती के विस्तार की नई सम्भावनाएँ रूप एवं आकार नहीं ले पाती। इस बजट में भी १६.५ करोड़ रुपए नए कृषि कर्ज के लिए रखा गया है। सरकारी कृषि मंडियों को ई नाम पोर्टल से जोड़ने की बात तो की गयी और  न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि खरीद बढ़ाने की बात कही गयी। परन्तु कृषि विविधता, पोषण युक्त कृषि उत्पादों, जैविक तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण वाली कृषि तकनीकों के लिए विशिष्ट बजट समर्थन की कोई कार्य योजना स्पष्ट नहीं हो पा रही है। सूक्ष्म जीवों एवं अन्य जैविक कृषि तकनीकों को बढ़ावा देने वाली कृषि विधियों तथा इनके उद्योगों को बढ़ावा देने का कोई रोड मैप यह बजट भी प्रस्तुत नहीं कर पाया है, जो छोटे किसानों के रोज़गार और लघु हरित उद्योगों के लिए  बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। भारतीय कृषि को इस तरह के नए प्रावधानों एवं स्पष्ट कार्य योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है।

             भारतीय कृषि मोटे तौर पर गाँवों पर निर्भर है।  कृषि के विकास के लिए अनेक विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और राष्ट्रीय एवं प्रांतीय विभाग बनाए गये हैं पर किसी की भी स्पष्ट जवाबदेही नहीं है। न ही कोई प्रामाणिक एवं विश्वसनीय योजनाओं के प्रभाव आकलन की व्यवस्था है। सभी संस्थानों और विभागों के बड़े बड़े दावे योजनाओं की वार्षिक रिपोर्टों में भरे पड़े हैं। पर कृषि क्षेत्र की समस्यायें ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं। किसी स्वतंत्र देश के सात दशक खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की समस्याओं को समझने और उससे उबारने के लिए कम नहीं होते हैं। जो किसान सड़क पर हैं, उनकी नियत राजनैतिक हो सकती है, पर यह स्पष्ट है कि कोई कृषि कार्य से संतुष्ट नहीं है। कृषि को एक विशिष्ट हरित उद्योग के रूप में विकसित किया  जाना चाहिए था, जो अब भी नारों और किताबों में बन्द पड़ा है। एक विष विहीन, पोषक और प्रकृति संगत कृषि व्यवस्था गाँव, कस्बे, छोटे बड़े शहरों और अनेक देशों तक बाजार और व्यापार से खेत और रोजगार का व्यापक ढाँचा खड़ी करने की सैद्धांतिक और व्यावहारिक क्षमता रखती है , जिसे अभी तक ठीक से समझने की कोशिश ही नहीं की गयी  है । विष विहीन तथा विविध कृषि उपज की घरेलू और विदेशी बाजार में अधिक माँग हो सकती है परन्तु इसे औपचारिकता से अधिक महत्व अब भी नहीं दिया जा रहा है।  जिससे हम न कृषि का विकास कर पा रहे हैं, न गाँव का । हमारे देश में कृषि आज लघु एवं सीमांत किसानों के रोजगार और जीविका का साधन है जो सामान्यतः गरीब, अशिक्षित  तथा अभावग्रस्त हैं। गाँव का युवा एक अजीब तरह की दिशाहीनता से ग्रस्त होकर चौराहे पर खड़ा है। राष्ट्रीय एवं वैश्विक मूल धारा में प्रतिस्पर्धा कर नौकरी तथा व्यवसाय शुरू कर पाने योग्य  प्रज्ञा, पारिवारिक अनुभव तथा आर्थिक और कौशलीय क्षमता बहुत कम ग्रामीण युवाओं को उपलब्ध हैं, कि इसके लिए परिवार एवं परिवेश में उचित माहौल नहीं है। ऐसे में कृषि को औद्योगिक बनाने की प्रक्रिया तेज करनी होगी एवं गावों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए शिक्षा, कौशल विकास एवं हरित उद्योगों का हब बनाना होगा। कोरोना काल के लघु उद्योगों एवं रोजगार से जुड़ी घोषणाओं को कृषि क्षेत्र में बड़े बदलावों के लिए इस बजट से जोड़ा जाना चाहिए था जो बजट पर उपलब्ध विवरणों से परिलक्षित नहीं हो पा रहा है।

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